Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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६३२ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति ग्रन्थ : तृतीय अध्याय
चित्रित अतिप्राचीन ताड़पत्र के ग्रंथ राजस्थान की भूमि से बाहर निकल कर ठेठ अमरीका पहुँचे हैं. इनमें से ताड़पत्र पर चित्रित 'सप्तग पडिकमण सुत्त चुन्नी' नामक ग्रन्थ बोस्टन के संग्रहालय की भारतीय कला दीर्घिका में प्रदर्शित है। और मेदपाट (मेवाड़) के आघाट या वर्तमान आहाड़ में चित्रित है. यह १२६० ई० का गुहिल तेजसिंह के शासनकाल में कमलचन्द्र द्वारा लिखा गया था. इसी प्रकार की अन्य कृतियों रास तथा कुमार स्वामी के संयुक्त संग्रह के ग्रंथों में १४४७ ई० के कल्पसूत्र व कालकाचार्य कथानक नामक ग्रंथ भी शामिल हैं. सन् १४२२-२३ ई० में रचित महाराणा मोकल के काल का 'सुपासनाह चरित्रम्' नामक ग्रंथ मेवाड़ में मिला है.
इस भाँति शौर्य, शक्ति और साहस के साथ राजस्थानी विद्या, ज्ञान, साहित्य, चित्रकला, स्थापत्य एवं मूर्तिकला आदि का भी अपना गौरवशाली पक्ष रहा है. यही कारण है कि इस प्रदेश में ऐतिहासिक स्मारकों के समान प्राचीन पुस्तकालयों एवं कला-संग्रहों की संख्या भी बहुत है, जिनमें से कोई तो इतने बड़े रहे हैं, जिनकी टक्कर के भारत में अन्यत्र बहुत कम देखे गये हैं. लगभग आठ सौ वर्षों तक जैन-सम्प्रदाय का प्रभाव इस प्रदेश पर रहने के कारण प्राचीन एवं मध्ययुगीन राजस्थानी साहित्य एवं कला पर उसकी छाप स्पष्ट रूप से प्रकट होती है. उस काल में जैन विद्वानों द्वारा साहित्यिक, कलात्मक एवं अन्य विषयों सम्बन्धी कई रचनायें तैयार की गई. इससे भी बड़ी सेवा जैन-सम्प्रदाय ने मध्ययुगीन बर्बरता एवं विध्वंस से प्राचीन साहित्य की रक्षा करने की है. राजस्थान के विभिन्न इलाकों में जैन विद्वानों द्वारा गुप्त पुस्तकालयों का निर्माण किया गया. मरुभूमि में स्थित जैसलमेर का जैन ग्रन्थ भंडार इस प्रकार के पुस्तकालयों में सबसे बड़ा रहा है. इन पुस्तकालयों में राजस्थान एवं भारत के इतिहास पर प्रकाश डालने वाले हस्तलिखित ग्रन्थ तो हैं ही, परन्तु साहित्यकाल का कोई अंग नहीं हैं, जिस पर मूल्यवान् ग्रन्थ प्राप्त नहीं हो. राजस्थान में प्राप्त बात यह है कि मुगल काल में राजस्थानी शासकों का देश के दूरस्थ प्रदेशों से देश की विभिन्न भाषाओं के हस्तलिखित ग्रन्थ भी उपलब्ध हैं. उदाहरण के लिए मिलेंगे तो बीकानेर में कन्नड़ के और उदयपुर में गुजराती भाषा के ग्रन्थ उप
विभिन्न पुस्तकसंग्रहों की एक विशेष सम्पर्क रहने के कारण, इन संग्रहों में जयपुर में यदि बंगाली भाषा के ग्रन्थ लब्ध हो जायेंगे.
राजस्थान के विभिन्न पुस्तकालयों में प्राप्त होने वाली ऐतिहासिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण निधि के अलावा इस प्रदेश में कुछ ऐसी और साहित्यिक सामग्री रही है, जो इतिहास पर थोड़ी-बहुत दृष्टि डालने की दृष्टि से महत्वपूर्ण थी, जिसके महत्व को सर्वप्रथम कर्नल टाड ने प्रकट किया. उसमें भाटों और चारणों की वंशावलियाँ ख्यातें और रहानियाँ मुख्य हैं. प्राचीन पुस्तकों के नष्ट एवं लुप्त हो जाने के कारण भाटों आदि ने मध्यकाल में ऐसी कई राजस्थानी भाषा में पद्यमय ख्यातें, बातें, डिंगलगीत आदि लिखे, जिनमें उन्होंने इस देश पर राज्य करने वाले तत्कालीन राजवंशों के पिछले नाम, जो उन्हें मिल सके, दर्ज किये और पुराने नामों में से जिन-जिन प्रसिद्ध राजाओं के नाम सुनने में आते थे, वे लिखे. उन्होंने अपनी पुस्तकों को पुरानी बतलाने के लिये कल्पित नामों एवं असत्य संवतों का उपयोग भी किया. उनकी ये पद्यमय एवं वीररसपूर्ण रचनाएँ एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक आकर अत्यधिक अतिशयोक्तिपूर्ण हो जाती थीं. कुछ इसी प्रकार के पद्यमय वंश - इतिहास ग्रन्थों की रचनाएँ की गई हैं जो विभिन्न शोधकों द्वारा पिछले वर्षो में प्रकाश में लाई गई. ऐसी रचनाओं में पृथ्वीराज रासो, बीसलदेवरासो, हमीरायण, हमीररासो. रतनरासो, विजयविलास, सूर्यप्रकाश, जगतविलास, राजप्रकाश, मुहणोत नैणसीजी री ख्यात, शिखरवंशोत्पत्ति, परमालरासो, केसरीसिंहसमर, सुजानचरित, छत्राण हमीरहरु, हिम्मतबहादुर प्रधावली सांभरयुड, जाजवयुद्ध बुद्धिविलास गुलालचरित भावदेव मूरिरास लावारासा, रतनरासा, जसवंत उद्योग, कायमरासो, अल्लाखाँ की पैठी, परमारवंश दर्पण, राज रसनामृत, छंदराउ जैतसी, वचनिका राठोड़ रतन सिंहजी की महेसदासोतरी, महाराणा यशप्रकाश, राजविलास, उदयपुर री ख्यात, अचलदास खीची री वात ख्यातवात संग्रह, जगविलास, भीमविलास, राणारासो, सज्जन प्रकाश, संगतरासो आदि प्रमुख हैं.
उपर्युक्त सूचित एवं प्रकाशित रचनाओं के अतिरिक्त भी दिनानुदिन इस क्षेत्र में वव्य शोष एवं ऐतिहासिक
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