Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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६३८ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : तृतीय अध्याय इस ग्रन्थ की एक विशेषता यह है कि उसमें कर्नल टाड की कई बातों को स्पष्ट एवं संशोधित किया गया है और टाड ग्रन्थ की समाप्ति के काल से आगे महाराणा सज्जनसिंह के शासनकाल अर्थात् १८८४ तक का मेवाड़ का इतिहास दिया गया है. दूसरी विशेषता यह है कि इसमें अनेक शिलालेखों, दानपत्रों, सिक्कों, राजकीय पत्र-व्यवहार, बादशाही फरमान आदि का बहुत अच्छा संग्रह हुआ है. तीसरी विशेषता यह है कि इसमें मेवाड़ के विस्तृत इतिहास के साथ-साथ राजपूताना तथा बाहर के अन्य राज्यों का, जिनका किसी न किसी रूप में मेवाड़ के साथ सम्बन्ध रहा, संक्षिप्त इतिहास भी लिखा गया है. ग्रन्थ की समाप्ति महाराणा फतहसिंह के काल में हुई, जिन्होंने ग्रन्थ का प्रचलन उचित न मान कर, छप जाने के बाद भी प्रकाश में नहीं आने दिया. इसका परिणाम यह हुआ कि विद्वान् इस महत्त्वपूर्ण एवं उपयोगी ग्रन्थ का लाभ बहुत काल बाद में उठा सके. इसी काल में एक अन्य काव्यमय ऐतिहासिक ग्रंथ 'वंशभास्कर' की रचना की गई. इसके लेखक बूंदी के कविराजा सूरजमल जो राजस्थानी साहित्य के पूर्व आधुनिक काल के सबसे बड़े कवि माने गये हैं. ये स्वभावसिद्ध कवि एवं षट् भाषाज्ञानी थे और न्याय, व्याकरण आदि अनेक विषयों में पारंगत थे. 'वंशभास्कर' डिंगल भाषा में रचा गया काव्य ग्रंथ है. जिसमें लगभग सवा लाख पद हैं. 'वीरविनोद' की भाँति यह ग्रंथ भी बूदी नरेश की सहायता से तैयार किया गया था. किन्तु बाद में कवि ने अपनी स्वतन्त्र प्रकृति के कारण जब बूंदी-नरेश रावराजा रामसिंह के गुण-दोषों का वर्णन प्रारम्भ किया तो रावराजा सहमत नहीं हुए. इस पर कवि ने ग्रन्थ को अपूर्ण छोड़ दिया. चारण कवि का लिखा हुआ होने पर भी 'वंशभास्कर' पर्याप्तरूप से प्रामाणिक माना जाता है. बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भिक काल में राजपूताने के इतिहास की शोध, मनन एवं रचना की दृष्टि से सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण प्रयास डा० गौरीशंकर हीराचन्द ओझा ने किया. ओझाजी अपने काल के उत्कट विद्वान् एवं इतिहास के अद्वितीय ज्ञाता हुए हैं. विद्याध्ययन करने के बाद उनका सम्पूर्ण जीवन इतिहास की खोज में बीता. प्रारम्भ में उदयपुर में रहकर आपने 'वीरविनोद' जैसे महान् ग्रन्थ की रचना को पूर्ण करने में कविराजा श्यामलदास को अपनी सेवाएँ दीं. वे सन् १९०८ में राजपूताना म्यूजियम अजमेर के क्यूरेटर बनाये गये, जहाँ लगभग ३० वर्षों तक काम करते रहे. श्री ओझा ने अथक खोज के आधार पर राजपूत वंशों की वंशावलियों में जो शृंखलाएँ टूटती थीं, अथवा त्रुटियां थीं, उन सबको पूरा एवं ठीक किया. आपने कई हस्तलिखित ग्रन्थ, प्राचीन सिक्के, शिलालेख एवं ताम्रपत्र आदि एकत्र किये, जिनके आधार पर बाद में आपने राजपूताना के राज्यों का नवीन इतिहास तैयार किया. इस नवीन इतिहास में आपने कर्नल टाड द्वारा की गई भूलों को सुधारा, अतिशयोक्तिपूर्ण किम्बदंतियों एवं गाथाओं को ठीक किया और इस प्रदेश के इतिहास को नवीन ढंग से वैज्ञानिक आधार पर तैयार किया. ओझाजी का राजपूताने का इतिहास अत्यधिक प्रामाणिक ग्रन्थ के रूप में स्वीकार किया गया और उसको इस प्रदेश के इतिहास लेखन की दृष्टि से एक महत्त्वपूर्ण घटना माना गया. ओझाजी से लगभग १०० वर्ष पूर्व कर्नल टाड ने राजपूताने के इतिहास के सम्बन्ध में जो ग्रन्थ तैयार किया उसको 'राजपूताने के इतिहास का कीर्तिस्तम्भ' पुकारा गया था. श्री ओझा के नवीन इतिहास को 'राजपूताने के इतिहास का दूसरा भव्य 'कीर्तिस्तम्भ' कहा गया. ओझाजी ने टाड कृत राजस्थान का सम्पादन कार्य भी प्रारम्भ किया था, किन्तु वह कार्य अपूर्ण रहा. सन् १८६४ में आपने 'भारतीय प्राचीन लिपिमाला' नामक अपूर्व ग्रन्थ की रचना की जिसके कारण आपको अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त हुई. उस समय तक संसार की किसी भी भाषा में ऐसा अनूठा ग्रन्थ प्रकाशित नहीं हुआ था. १९१८ में इस ग्रंथ पर आपको 'मंगला प्रसाद पारितोषिक' भेंट किया गया. १९०७ में आपने सोलंकियों का इतिहास लिखा, जिस पर नागरी प्रचारिणी सभा ने आपको एक पदक देकर सम्मानित किया. १६२८ में आपने मध्यकालीन भारतीय संस्कृति पर प्रयाग की हिन्दुस्तानी अकादमी में तीन व्याख्यान दिये जो पुस्तकाकार प्रकाशित किये गये. आपके ७० वें जन्मदिवस पर हिन्दी साहित्य सम्मेलन की ओर से आपको अभिनन्दन ग्रन्थ भेंट किया गया जो 'भारतीय अनुशीलन' के नाम से प्रकाशित हुआ.
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