Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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६४४ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-प्रन्थ : तृतीय अध्याय जन्मप्रसंग पर देवों का संसर्ग दोनों ही युगपुरुषों के बताया गया है. आचारांग और कल्पसूत्र का वर्णन अधिक विस्तृत और अधिक अतिशयप्रधान है अपेक्षाकृत जातक-अर्थकथा के. शुद्धोदन सद्यःजात शिशु बुद्ध को 'काल-देवल' तपस्वी के चरणों में रखना चाहता है पर इसके पूर्व बुद्ध के चरण तपस्वी की जटाओं में लग जाते हैं इसलिये कि बुद्ध जन्म से ही किसी को प्रणाम नहीं किया करते. महावीर की जीवनचर्या में ऐसी कोई घटना नहीं घटती है पर नियम तीर्थंकरों का भी यही है कि वे किसी पुरुषविशेष को प्रणाम नहीं करते. महावीर के अंकधाय, मज्जनधाय आदि पाँच धाएँ और बुद्ध का निर्दोष धाएँ लालन-पालन करती हैं. जातक-अर्थ-कथा ने प्रसंगोपात्त बीजारोपण-समारोह का प्रेरक चित्रण किया है. वृक्षारोपण समारोह (वनमहोत्सव) अभीअभी भारतवर्ष में चला है. प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति या अन्य बड़े लोग एक बार पानी सींचकर वृक्षारोपण करते हैं. उस चित्रण के अनुसार बीज-रोपण समारोह में एक सहस्र हलवाहकों के साथ राजा, मंत्री आदि अपने हाथों से हल जोतते हैं. महावीर भोगसमर्थ होकर और बुद्ध १६ वर्ष के होकर दाम्पत्य-जीवन प्रारम्भ करते हैं. जातकअर्थकथायें, शीत, ग्रीष्म, वर्षा इन तीनों ऋतुओं के पृथक्-पृथक् तीन प्रासाद बतलाती हैं. आचारांग व कल्पसूत्र पृथक् पृथक् ऋतुओं के पृथक्पृथक् प्रासाद कहकर वैभवशीलता व्यक्त करते हैं. अन्यान्य प्रकरणों से भी पता चलता है कि श्रीमन्त लोग पृथक्-पृथक् ऋतुओं के लिये पृथक्-पृथक् भवन बनाते हैं और ऋतु के अनुसार उनमें निवास करते हैं. बुद्ध के मनोरंजन के लिये ४४ सहस्र नर्तिकाओं की नियुक्ति का वर्णन है. शाला आदि में जाकर शिल्प व्याकरण आदि का अध्ययन न महावीर करते हैं और न बुद्ध. महावीर एक दिन के लिये शाला में जाते हैं और इन्द्र के व्याकरण सम्बन्धी प्रश्नों का उत्तर देकर अपनी ज्ञानगरिमा का परिचय देते हैं. बुद्ध एक दिन शिल्पविशारदों के बीच अपनी शिल्प-दक्षता का परिचय देते हैं. प्रतिबोध के समय पर महावीर को लोकान्तिक देव आकर प्रतिबुद्ध करते हैं, बुद्ध को देव आकर वृद्ध, रोगी व मृत के पूर्व शकुनों से प्रतिबुद्ध करते हैं. दीक्षा से पूर्व महावीर वर्षीदान करते हैं, बुद्ध के लिये ऐसा उल्लेख नहीं है. नगर-प्रतोली के बाहर होते ही 'मार' बुद्ध से कहता है-"आज से सातवें दिन तुम्हारे लिये 'चक्ररत्न' उत्पन्न होगा, अत: घर छोड़कर मत निकलो." चक्रवर्ती होने वालों के लिये 'चक्ररत्न' की परिकल्पना जैन परम्परा में भी मान्य है. महावीर का दीक्षा-समारोह इन्द्र आदि देव व सिद्धार्थ आदि मनुष्य आयोजित प्रकार से मनाते हैं. वे भगवान् को अलंकृत करते हैं, शिविकारूढ करते हैं, जुलूस निकालते हैं, यावत् दीक्षा-ग्रहण-विधि सम्पन्न कराते हैं. जिस रात को बुद्ध का महाभिनिष्क्रमण होता है, उसी दिन इन्द्र के आदेश से बुद्ध के स्नानोत्तर काल में देव आते हैं और अन्य उपस्थितों से अदृष्ट रहकर ही बुद्ध की वेश-सज्जा करते हैं. दोनों प्रकरणों को एक साथ देखने से लगता है कि आगमों की दीक्षा-शैली का अनुसरण 'जातक-अर्थ-कथा' में हुआ है. बुद्ध के घटनात्मक दीक्षा-प्रकरण में देव-संसर्ग को यथाशक्य ही जोड़ा जा सकता था, पर यह कमी भी बौद्ध कथाकार ने तब पूरी की जब बुद्ध रात्रि के नीरव वातावरण में अपने अश्व को बढ़ाये ही चले जा रहे थे. वहाँ साठ-साठ हजार देवता चारों ओर हाथों में मशाल लिये चलते हैं. महावीर ने दीक्षा-ग्रहण के समय पञ्चमुष्टिक लोच किया, बुद्ध ने अपना केश-जूट तलवार से काटा. महावीर के केशों को इन्द्र ने ग्रहण कर क्षीर-समुद्र में विसर्जित किया. बुद्ध ने अपने कटे केश-जूट को आकाश में फेंका. योजन भर ऊँचाई पर वह अधर में टिका, इन्द्र ने उसे वहाँ से रत्नमय करण्ड में ग्रहण कर त्रायस्त्रिश लोक में चूड़ामणि-चैत्य का स्वरूप दिया. दीक्षित होने के पश्चात् मुख व मस्तक के केश न महावीर के बढ़ते हैं, न बुद्ध के. दोनों ही परम्पराओं ने इसे अतिशय माना है.
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