Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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६१४ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : तृतीय अध्याय तमीडेत महासाधं (तुम उसकी स्तुति करो जो सर्वप्रथम मोक्ष का साधक है), अहंत (सर्वपूज्य है), आरीविश: उब्जः भृज्जसानम् (जिसने स्वयं शरण में आनेवाली प्रजा को बल से समृद्ध करके), पुत्र भरतं संप्रदान (अपने पुत्र भरत को सौंप दिया), देवों ने उस द्रव्यदाता अग्नि (अग्नि देवता को) धारयन् (धारण कर लिया.)' स मातरिश्वा (वह वायु के समान निर्लेप और स्वतन्त्र है), पुरुवार पुष्टि (अभीष्ट वस्तुओं का पुष्टिकारक साधन है), उसने स्ववितं (ज्ञान सम्पन्न हो कर), तनयाय (पुत्र के लिये) गातं (विद्या), विदद (देदी), वह विशांगोपा (प्रजाओं का संरक्षक है), पवितारोदस्यो: (अभ्युदय तथा निःश्रेयस का उत्पादक है), देवों ने उस द्रव्यदाता अग्नि (अग्रनेता को) ग्रहण कर लिया.२ ।। निर्वाण की पुण्य वेला में जब आदि प्रजापति वृषभ ने विनश्वर शरीर का त्याग करके सिद्ध लोक को प्रस्थान किया तो उनके परम प्रशान्त रूप को आत्मसात् करने वाली अन्त्येष्टि अग्नि ही तत्कालीन जन के लिये उनके वीतराग रूप की एकमात्र संस्मारक बन कर रह गई. जनता अब अग्नि दर्शन से ही अपने आराध्य के दर्शन पाने लगी. उस समय मूर्तिकला का विकास नहीं हुआ था, अतः यह सप्तजिह्वा अग्नि ही उस महामानव का प्रतीक बन गई. उपलब्ध प्राचीन अनुश्रुतियों से ज्ञात होता है कि भगवान् के प्रति जन-जन के हृदयों में स्वभावतः उद्दीप्त होने वाले भक्तिभाव को संतुष्ट एवं संतृप्त करने के लिये उनके ज्येष्ठ गणधर (मानस पुत्र) ने इस भौतिक अग्नि द्वारा आदि ब्रह्मा वृषभ के उपासनार्थ इज्या, पूजा एवं अर्चना का मार्ग निकाला था. वह याज्ञिक प्रक्रिया के प्रथम विधायक थे. उन्होंने ही लोकमंगल के लिये अभीसिद्धि, अनिवृपरिहार एवं रोग-निवृत्तिकर आदि अनेक उपयोगी मन्त्र-तन्त्र विद्याओं का सर्वप्रथम प्रकाश किया था. वह वैदिक परम्परा में ज्येष्ठ अथर्वन और जैन परम्परा में ज्येष्ठ गणधर के नाम से प्रसिद्ध हैं. जैन परम्परा के अनुसार यह भगवान् वृषभदेव के पुत्र वृषभसेन थे. भगवान् ने इन्हें ही समस्त विद्याओं में प्रधान ब्रह्मविद्या देकर लोक में अपना उत्तराधिकारी बनाया था.४ इनके द्वारा तथा अन्य अथर्वनों (गणधरों) द्वारा प्रतिपादित अनेक तान्त्रिक विधानों तथा वृषभ के हिरण्यगर्भ, जातवेदस् जन्य, उग्र तपस्या, सर्वज्ञता देशना, सिद्धलोकप्राप्ति सम्बन्धी अनेक रहस्यपूर्ण वार्ताओं तथा यति व्रात्य श्रमणों की आध्यात्मिक चर्चा का संकलन चौथे वेद में हुआ है. अतः इसकी प्रसिद्धि अथर्ववेद के नाम से हुई. अथर्वन द्वारा प्रतिपादित प्रक्रिया के अनुसार अग्नि में हव्य द्रव्य की आहुति देकर सर्वप्रथम वृषभ की पूजा उनके ज्येष्ठ पुत्र तथा भारत के आदि चक्रवर्ती भरत महाराज, जो मनु के नाम से भी प्रसिद्ध थे, ने की थी. इसके पश्चात् उनका अनुकरण करते हुए समस्त प्रजाजन भगवान् वृषभदेव के प्रतीक रूप में अग्नि की पूजा में प्रवृत्त हुए.५ उक्त प्रक्रिया के अनुसार यह पूजा प्रातः, मध्याह्न और सायं तीनों काल होती थी. अथर्ववेद अनड्वान सूक्त में इस पूजा का फल बतलाते हुए कहा है कि जो इस प्रकार प्रतिदिन तीनों समय भगवान् वृषभ की पूजा करते हैं वे उन्हीं
१. ऋग्वेद १,६, ३. २. वही, १, ६, ४. ३. (अ) सत्यत्रात सामश्रमी निरकालोचन वि० सं० १९५३ पृ० सं० १५५.
(आ) A.C. Das-Rigvedic Culture pp. 113-115. (s) Dr. Winternitz-History of India Leterature Vol. I, 1927. P. 120.
(ई) 'अग्निर्जातो अथर्वना.'-ऋग्वेद १०, २१, ५. ४. (अ) महा देवानां प्रथमः सम्बभूव विश्वस्य कर्ता भुवनस्य गोप्ता ।
स ब्रह्मविद्यां सर्वविधाप्रतिष्ठामथर्वाय ज्येष्ठपुत्राय प्राह ॥-मुण्डकोपनिषद् १, १. (आ) 'स्वर्तितनयाय गातं विदद.' ऋग्वेद १,६६, ४. ५. (अ) 'मनुईवा अग्रे यक्ष ने तद् नुकत्येमा प्रजा यजन्ते.-शतपथ ब्राहाण, १५, १, ७.
(आ) जिनसेनकृत आदिपुराण, पर्व ४७,३२२, ३५१ .
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