Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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६२४ : मुनिश्री हजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : तृतीय अध्याय लेने का उल्लेख है.' प्रभासपुराण में भी ऐसा ही उल्लेख उपलब्ध होता है.२ विमलसूरि के 'पउमचरिउ' के मंगलाचरण के प्रसंग में एक "जिनेन्द्र रुद्राष्टक' का उल्लेख हुआ है. यद्यपि इसे अथक कहा गया है, परन्तु पद्य सात ही हैं. इसमें जिनेन्द्र भगवान् का रुद्र के रूप में स्तवन किया गया है. बताया गया है कि जिनेन्द्र रुद्र पाप रूपी अन्धकासुर के विनाशक हैं, काम, लोभ एवं मोहरूपी त्रिपुर के दाहक हैं, उनका शरीर तप रूपी भस्म से विभूषित है, संयमरूपी वृषभ पर वह आरूढ़ हैं, संसाररूपी करी (हाथी) को विदीर्ण करने वाले हैं, निर्मल बुद्धिरूपी चन्द्ररेखा से अलंकृत हैं, शुद्धभावरूपी कपाल से सम्पन्न हैं, व्रतरूपी स्थिर पर्वत (कैलाश) पर निवास करने वाले हैं, गुण-गण रूपी मानव-मुण्डों के मालाधारी हैं, दश धर्मरूपी खट्वांग से युक्त हैं. तपःकीति रूपी गौरी से मण्डित हैं. सात भय रूपी उद्दाम डमरू को बजानेवाले हैं, अर्थात् वह सर्वथा भीतिरहित हैं, मनोगुप्ति रूपी सर्पपरिकर से वेथित हैं, निरन्तर सत्यवाणी रूपी विकट जटा-कलाप से मंडित हैं तथा हुंकारमात्र से भय का विनाश करने वाले हैं. आचार्य वीरसेन स्वामी ने धवला टीका में अर्हन्तों का पौराणिक शिव के रूप में उल्लेख किया है और कहा है कि अर्हन्त परमेष्ठी वे हैं जिन्होंने मोह रूपी वृक्ष को जला दिया है, जो विशाल अज्ञान रूपी पारावार से उत्तीर्ण हो चुके हैं, जिन्होंने विघ्नों के समूह को नष्ट कर दिया है, जो सम्पूर्ण बाधाओं से निर्मुक्त हैं, जो अचल हैं, जिन्होंने कामदेव के प्रभाव को दलित कर दिया है, जिन्होंने त्रिपुर अर्थात् मोह, राग द्वेष को अच्छी तरह से भस्म कर दिया है, जो दिगम्बर मुनिव्रती अथवा मुनियों के पति अर्थात् ईश्वर हैं, जिन्होंने सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक् चारित्र रूपी त्रिशूल को धारण करके मोह रूपी अंधकासुर के कबन्धवृन्द का हरण कर लिया है तथा जिन्होंने सम्पूर्ण आत्मरूप को प्राप्त कर लिया है और दुर्नय का अन्त कर दिया है.४ पउमचरिउ में उल्लिखित 'रुद्रायक' इस तथ्य का द्योतक है कि इस रचना के समय तक वैदिककालीन रुद्र ने कापालिक एवं पौराणिक युग के लोकप्रचलित स्वरूप को अंगीकार कर लिया था, जिसका जैन परम्परानुरूपी समन्वय उक्त 'अषक' के रचयिता ने अपनी रचना में करके अपनी परम्परागत रुद्रभक्ति का परिचय दिया. वीरसेन स्वामी द्वारा अर्हन्तों का पौराणिक शिव के रूप में किया गया चित्रण भी इसी तथ्य की ओर इंगित करता है. स्वयं महाकवि पुष्पदन्त ने भी अपने महापुराण में एक स्थल पर भगवान् वृषभदेव के लिये रुद्र की ब्रह्मा-विष्णु-महेश रूपी त्रिमूर्ति से सम्बन्धित अनेक विशेषणों का प्रयोग किया है. भगवान् का यह एक संस्तवन है, जिसे उनके केवल ज्ञान
१. इत्थं प्रभाव ऋषभोऽवतारः शंकरस्य मे । सतां गतिर्दीनबन्धुर्नवमः कथितबस्तव ।
ऋषभस्य चरित्र हि परमं पावनं महत् । स्वय॑यशस्यमायुष्यं श्रोतव्यं च प्रयलतः। -शिवपुराण ४, ४७-४८. २. कैलाशे विमलरम्ये वृषभोऽयं जिनेश्वरः । चकार स्वावतार च सर्वज्ञः सर्वगः शिवः। -प्रभासपुसण, ४६. ३. 'पापान्धकनिर्णाशं मकरध्वज-लोभ-मोहपुरदहनम् , तपोभस्म भूषितांगं जिनेन्द्ररुद्र सदा वन्दे ॥१॥
संयमवृषभारूढं तप-उग्रमहत तीक्ष्णशूलधरम्, संसारकरि विदारं जिनेन्द्ररुद्र सदा वन्दे ।। बिमलमतिचन्द्ररेख विरचितसिलशुद्धभावकपालम्, व्रताचलशैलनिलय जिनेन्द्ररुद्र सदा वन्दे ।३। गुणगणनरशिरमालं दशध्वजोद्भूतविदितखड्वाङ्गम्, तपः कीर्तिगौरिरचितं जिनेन्द्ररुद्र सदा बन्दे ।४। सप्तभयडाम डमरूकवाद्यं अनवरतप्रकटसंदोहम्, मनोवद्धसर्पपरिकरं जिनेन्द्ररुद्र सदा वन्दे ।५। अनवरतसत्यवाचा विकटजटामुकुट कृतशोभम्, हुंकारभयविनाशं जिनेन्द्ररुद्र सदा वन्दे ।। ईशान शयनरचितं जिनेन्द्ररुद्राष्टकं ललितं मे भावं च, यः पठति भावशुद्धस्तस्य भवेज्जगति संसिद्धिः ॥७॥' ४. 'गिद्धद्धमोहतरुणो विस्थिराणणाण-सायरुत्तिण्णा, णिहय-णिय-विग्ध-वग्गा बहुवाहविणिग्गया अयला ।
दलिय-मयण-धायाबा तिकालविसएहि तीहि ण्यणेहिं, दिट्ठसयलट्ठसारा सुरद्धतिउण मुणब्वइयो । तिरयणतिसूलधारिय मोहंधासुर-कवंध-विन्दहरा, सिद्धसयलप्परूवा अरहन्ता दुण्णयकयंता ।
-धवला टीका-१ पृ० सं०४५-४६.
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