Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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६०८ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति ग्रन्थ : तृतीय अध्याय
इस प्रकार, शास्त्रार्थ की विजय-दुन्दुभी निनादित करते हुए स्वामी समन्तभद्र ने करहाटक (सतारा) नगर पहुंचकर वहाँ के राजा को शास्त्रार्थ के लिये ललकारा था. स्वामी समन्तभद्र के रचे ग्रन्थों में-आप्तमीमांसा, युक्त्यनुशासन, स्वयम्भूस्तोत्र, रत्नकरण्डक उपासकाध्ययन, प्राकृतव्याकरण, गन्धहस्तिमहाभाष्य आदि प्रमुख हैं. कहना न होगा कि इन वरेण्य आचार्यों ने दक्षिण-भारत में जैनधर्म का अमर प्रचार किया और जन-जन को, जैनधर्म के माध्यम से, जनधर्म का परिचय देकर उनके जीवन को सफल किया. इसमें कोई संदेह नहीं कि जैनशास्त्रानुसार उत्तर-भारत की भाँति दक्षिण-भारत के देशों में भी सर्वप्रथम भगवान् ऋषभदेव द्वारा ही सभ्यता और संस्कृति का प्रचार हुआ. जब ऋषभदेव समूचे देश की धर्म-व्यवस्था करने लगे, तब इन्द्र ने सारे देश को निम्नलिखित ५२ प्रदेशों में विभक्त किया. सुकोसल, अवन्ती, पुण्ड्र, उण्ड्र, अश्मक, रम्यक, कुरु, काशी, कलिंग, अंग, बंग, सुहन, समद्रक, कश्मीर, उशीनर आनत, वत्स, पंचाल, मालव, दशार्ण, कच्छ, मगध, विदर्भ, कुरुजांगल, करहाट, महाराष्ट्र, सुराष्ट्र, आभीर, कोंकण, वनवास, आन्ध्र, कर्णाट, कोसल, चोल, केरल, दारु, अभिसार, सौवीर, शूरसेन, अपरान्त, विदेह, सिन्धु, गान्धार, यवन, चेदि, पल्लव, काम्बोज, आरट्ठ, वाह्लीक, तुरुष्क, शक और केकय.-(आदिपुराण, पर्व १६) । उक्त प्रदेशों में अश्मक, रम्यक, करहाट, महाराष्ट्र, आभीर, कोंकण, वनवास, आन्ध्र. कर्णाट, चोल, केरल आदि देश दक्षिणभारत में मिलते हैं. इससे स्पष्ट है कि भगवान् ऋषभदेव द्वारा इन देशों का अस्तित्व-निर्धारण और संस्कृति-परिर्माजन हुआ था. कहना न होगा कि दक्षिण-भारत में जैनधर्म का ऐतिहासिक आरम्भ कर्मभूमि के आदिकाल से ही हुआ, जो काल की दृष्टि से पौराणिक तथा ऐतिहासिक इन दो रूपों में लिपिबद्ध किया गया. कुछ विद्वानों की कल्पना है कि भगवान् ऋषभदेव के द्वितीय पुत्र सम्राट् बाहुबली ही दक्षिण-भारत के सर्वाग्रणी धर्मप्रवर्तक थे. वह भी इस अनुमान पर कि बाहुबली के शासन-क्षेत्र अश्मक, रम्यक तथा पोदनपुर दक्षिण-भारत में ही अवस्थित थे. हालांकि, पोदनपुर के सम्बन्ध में पर्याप्त मतभेद है. पोदनपुर किसी के मत में तक्षशिला है, और किसी के मत में दक्षिणपथ-स्थित प्रदेश विशेष. आधुनिक सुधी शोधकों के मतानुसार दक्षिण-भारत में जैनधर्म का प्रवेश अत्यन्त प्राचीनकालीन नहीं, वरन् मौर्यकालीन है. उनका कहना है कि सम्राट् चन्द्रगुप्त मौर्य के गुरु श्रुतकेवली भद्रबाहु ने जब उत्तर भारत में भीषण अकाल की सम्भावना देखी, तब वे संघ-सहित दक्षिण भारत चले गये और उन्होंने ही वहाँ की जनता को जैनधर्म से परिचित कराया. ऐतिहासिक दृष्टि से प्राच्य और पाश्चात्य इतिहासविदों का इस विषय में ऐकमत्य है, होना भी चाहिए; क्योंकि परम्परा के आधार पर धर्म का मूल्यांकन निर्धम नहीं हो सकता. परम्परावादी जैनों के विचार से यह बहुप्रचलित है कि दक्षिण-भारत में, खासकर वहाँ के प्राचीन तमिल (आन्ध्र)राज्य में वैदिक और बौद्धधर्म के अतिरिक्त जैनधर्म भी प्राचीनकाल से प्रचलित था. सन् १३८ ई० में वहाँ अलेक्जेण्डिया के 'पेण्टेनस' नाम का एक ईसाई पादरी आया था. उसने लिखा है कि वहाँ उसने श्रमण (जैन साधु), ब्राह्मण और बौद्ध गुरुओं को देखा था, जिनको भारतवासी बड़ी श्रद्धा से पूजते थे; क्योंकि उक्त गुरुओं का जीवन बड़ा ही पवित्र था. तमिल के 'संगम' ग्रन्थों-'मणिमेखल', 'शीलप्पधिकारम्' आदि-से पता चलता है कि जैन साधुओं का प्राचीन नाम 'श्रमण' था, किन्तु कालक्रम से बौद्धों ने भी इस शब्द को अपना लिया. किन्तु, दक्षिण-भारत के साहित्य-ग्रन्थों और शिलालेखों में सर्वत्र 'श्रमण' शब्द का प्रयोग जैनों के लिए ही हुआ है. इससे यह भी अप्रच्छन्न है कि श्रमणोपासकों की संख्या वहाँ प्राचीन काल में अत्यधिक थी.
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