Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
View full book text
________________
Ja
श्रीरंजन सूरि देव : दक्षिण भारत में जैनधर्म : ६०७ तक सफलता प्राप्त की, ठीक-ठीक नहीं कहा जा सकता. तत्स्थानीय पाँचवीं शती के एक ताम्रलेख में पहले-पहल श्वेताम्बर जैनसंघ का उल्लेख भी प्राप्त होता है.
श्रीमद्राभुतवली के बहुप्रसिद्ध संघ के उपरान्त शास्त्रों में दक्षिण भारत के उस दिगम्बर जैनसंघ का पता चलता है, जो श्रीधरसेनाचार्यजी के समय में महिमानगरी में सम्मिलित हुआ था. यह नगरी वर्तमान सतारा जिले का 'महिमानगढ़' प्रतीत होता है.
जैनसंघ के अन्तिम तीर्थंकर भगवान् महावीर वर्द्धमान और गणधर गौतमस्वामी के उपरान्त कुन्दकुन्दाचार्य को स्मरण करने की परिपाटी प्रचलित है. शिलालेखों में इनका नाम कोण्डकुन्द लिखा मिलता है. इस शब्द का मूल उद्गम द्राविड़भाषा से है, उसीका श्रुतिमधुर संस्कृत रूप कुन्दकुन्द प्रथित हुआ है. कहा जाता है कि इनका यथार्थ नाम पद्मनन्दि
पिच्छ नामों से भी प्रसिद्ध थे. ये कुडकुन्द नामक स्थान के अधि प्रसिद्ध हुए थे. इन्होंने अनेक ग्रन्थों की प्राकृत में तथा तमिल में भी ध्वनित किया.
था, परन्तु ये कुन्दकुन्द बक्खीव, एलाचार्य और वासी थे, इसीलिए ये कोण्डकुन्दाचार्य नाम से रचना की और जैनधर्म के जागरण का विजय शंख तमिल के अपूर्व नीतिग्रन्थ 'कुरल' के विषय में भी कहा जाता है कि यह श्री कुन्दकुन्दाचार्य की रचना है. तमिलवासी इस ग्रन्थ को अपना वेद मानते हैं. कुरल में कुल ८० परिच्छेद हैं पूरा ग्रन्थ उपदेशों और नीतिवाक्यों के साथ ही तीर्थंकरों की गुणगाथाओं और गौरव गरिमा से परिपूरित है.
कुन्दकुन्दाचार्य के बाद दक्षिणा जैनसंघ में भगवान् उमास्वामी या उमास्वाति ( ई० प्रथम शती) के अस्तित्व का पता चलता है. कुन्दकुन्दाचार्य की तरह उनकी भी मान्यता श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों में है. दिगम्बर जैनसाहित्य के अनुसार उमास्वाति कुन्दकुन्दाचार्य के वंशज थे एवं उनका दूसरा नाम गृध्रपिच्छाचार्य था. श्वेताम्बरीय प्रसिद्ध ग्रन्थ 'तत्वार्थाधिगमसूत्र' के भाष्य में उमास्वाति के विषय में जो प्रशस्ति मिलती है, उससे विदित होता है कि उनका जन्म 'न्यग्रोधिका' नामक स्थान में हुआ था. इनके पिता स्वाति और माता वात्सी थीं. इनका गोत्र कौभीषण था. इनके दीक्षागुरु श्रमण घोषनन्दि और विद्यागुरु वाचकाचार्य मूल थे. इन्होंने कुसुमपुर (पटना) नामक स्थान में अपना प्रसिद्ध ग्रन्थ तत्वार्थाधिगमसूत्र रचा था. दोनों ही — श्वेताम्बर - दिगम्बर - सम्प्रदायों में ये 'वाचक' की पदवी से अभिहित थे. श्वेताम्बरों की मान्यता के अनुसार इन्होंने पांच सौ ग्रन्थ रचे थे. ये संभवत: पहली शती के प्रसिद्ध दार्शनिक जैनविद्वान् थे.
उमास्वाति के पश्चात् श्रीसमन्तभद्रस्वामी का नाम जैनधर्म के अग्रदूत के रूप में लिया जाता है. इन्होंने दक्षिण भारत के कदम्ब वंश को सुशोभित किया था. इनके पिता फणिमण्डलान्तर्गत उरगपुर के क्षत्रिय राजा थे. स्वामी समन्तभद्र का बाल्यकाल जैनधर्म के केन्द्रस्थान – उरगपुर में व्यतीत हुआ था. इन्होंने अपने-आपको धर्मार्थ अर्पण कर दिया था. श्री समन्तभद्रस्वामी जैन सिद्धान्त के मर्मज्ञ होने के अलावा तर्क, व्याकरण, छन्द, अलंकार, काव्य, कोश आदि ग्रन्थों में पूर्णतः निष्णात थे. ये विविध देश पर्यटक भी थे। निम्नलिखित श्लोक से पता चलता है कि ये देश पर्यटन के सिलसिले में धर्मप्रचारार्थ एवं शास्त्रार्थ के हेतु पाटलिपुत्र [पटना ]' पधारे थे. श्लोक इस प्रकार है :
पूर्वं पाटलिपुत्रमध्यनगरे भेरी मया ताडिता, पश्चान्मालवसिन्धुक्कविषये कांचीपुरीवैदिशे । प्राप्तोऽहं करदायक बहुमत विद्योत्कट सङ्कट, वादार्थी विचराम्यहं नरपते ! शार्दूलविक्रीडितम् ।
१. श्री डी० जी० महाजन के मतानुसार यह पाटलिपुत्र मगध का सुप्रसिद्ध पाटनगर (पटना) न होकर दक्षिण भारत का पाटलिपुत्र भी हो अभिनन्दन ग्रंथ पृ० ३१६-३२२ से विदित होता है.
सकता है जैसा कि व
- सम्पादक
२. टक्क (पंजाब)
SEINENEINAN INIZINI INZINZINESEING
1
SEINEISENBEISEINE
dary.org