Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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डॉ. राजकुमार जैन एम० ए०, पी-एच० डी०, साहित्याचार्य, अध्यक्ष, संस्कृतविभाग आगरा कालेज, आगरा वृषभदेव तथा शिव-संबंधी प्राच्य मान्यताएँ
वृषभदेव तथा शिव दोनों ही अति प्राचीन काल से भारत के महान् आराध्य देव हैं. वैदिक काल से लेकर मध्य युग तक प्राच्य वाङ्मय में दोनों का देव देवताओं के विविध रूपों में अंकन हुआ है, वह अध्ययन का बड़ा मनोरंजक विषय है. प्रस्तुत लेख में उन्हीं मान्यताओं की विस्तारपूर्वक चर्चा की जा रही है. उपलब्ध भारतीय प्राच्य साहित्य के अध्ययन से स्पष्ट है कि भगवान ऋषभदेव की जो मान्यता एवं पूज्यता जैन परम्परा में है. हिन्दू परम्परा में भी वह उसी कोटि की है. जिस प्रकार जैन परम्परा में उन्हें मान्य एवं संस्तुत किया गया है, हिन्दू शास्त्र एवं पुराण भी उन्हें भगवान् के अवतार के रूप में मान्य करते हैं. श्रीमद्भागवत' में भगवान् वृषभदेव का बड़ा ही सुन्दर चरित अंकित किया गया है. इसमें भगवान् की स्वयंभू मनु, प्रियव्रत, आग्नीध्र, नाभि तथा वृषभ-इन पांचों पीढ़ियों की वंशपरम्परा का वर्णन करते हुए लिखा है कि आग्नीध्र के पुत्र नाभिराजा के कोई पुत्र नहीं था. अत: उन्होंने पुत्र की कामना से मरुदेवी के साथ यज्ञ किया. भगवान ने दर्शन दिये. ऋत्विजों ने उनका संस्तवन किया और निवेदन किया कि राजर्षि नाभि का यह यज्ञ भगवान् के समान पुत्रलाभ की इच्छा से सम्पन्न हो रहा है. भगवान् ने उत्तर दिया-'मेरे समान तो मैं ही हूँ, अन्य कोई नहीं. तथापि ब्रह्मवाक्य मिथ्या नहीं होना चाहिए. अत: मैं स्वयं ही अपनी अंशकला से आग्नीध्रनन्दन नाभि के यहाँ अवतार लूंगा.' इसी वरदान के फलस्वरूप भगवान् ने ऋषभ के रूप में जन्म लिया. इसी पुराण में आगे लिखा है-यज्ञ में ऋषियों द्वारा प्रसन्न किये जाने पर विष्णुदत परीक्षित्त स्वयं श्री भगवान् 'विष्णु' महाराज नाभि का प्रिय करने के लिये उनके अन्तःपुर की महारानी मरूदेवी के गर्भ में आये. उन्होंने इस पवित्र शरीर का अवतार वातरशना श्रमण ऋषियों के धर्मों को प्रकट करने की इच्छा से ग्रहण किया.२ भगवान् ऋषभदेव के ईश्वरावतार होने की मान्यता प्राचीनकाल में इतनी बद्धमूल हुई कि शिव महापुराण में भी उन्हें शिव के अट्ठाईस योगावतारों में गिनाया गया प्राचीनता की दृष्टि से भी यह अवतार रामकृष्ण के अवतारों से भी पूर्ववर्ती मान्य किया गया है. इस अवतार का जो हेतु श्रीमद्भागवत में दिखलाया गया है वह श्रमण धर्म की परम्परा को अंसदिग्ध रूप से भारतीय साहित्य के प्राचीनतम ग्रन्थ ऋग्वेद से संयुक्त करा देता है. ऋषभावतार का हेतु वातरशना श्रमण ऋषियों के धर्मों को प्रकट करना बतलाया है. श्रीमद्भागवत में ऋषभावतार का एक अन्य उद्देश्य भी
१. श्रीमद्भागवत ५, २-६. २. 'बर्हिषि तस्मिन्नेव विष्णुदत्त भगवान् परमर्षिभिः 'प्रसादितो नामः प्रियचिकीर्षया तदवरोधायने मेरुदेव्यां धर्मान्दर्शयितुकामो वातरशनानां
श्रमणानां ऋषीणाम् ऊर्ध्वमन्थिनां शुक्लया तनुदावततार.'-श्रीमद्भागवत पञ्चम स्कन्ध. ३. शिव पुराण. ७, २, ६.
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