Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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श्रीकलावती जैन जैनागम और नारी
श्रागमसाहित्य में नारी का महत्व—समाजरचना में नारी और पुरुष दोनों का समान महत्त्व रहा है. समाज का अर्थ है स्त्री और पुरुष. उसका अर्थ न केवल पुरुष है और न केवल स्त्री. समाज के विकास में दोनों का पृथक् अस्तित्व, कोई मूल्य नहीं रखता. दोनों विश्वरथ के दो चक्र हैं. उसमें न कोई छोटा न कोई बड़ा. दोनों की समानता ही रथ की गति-प्रगति है. दोनों ही समाज या विश्व-व्यवस्था के सहज-स्वाभाविक, अनिवार्य एवं अभिन्न अंग हैं, दोनों एक-दूसरे के परिपूरक हैं, सहायक हैं, सहयोगी हैं. समाज, राष्ट्र एवं विश्व के विकास में, विश्व-इतिहास को नई गति देने में पुरुष के साथ स्त्री का भी महत्त्वपूर्ण हाथ रहा है. इतिहास के पन्नों को पलट कर देखें, आपको स्वर्णाक्षरों में अंकित मिलेगा कि नारी ने हर युग में विश्व को, मानव जाति को नई ज्योति, नई प्रेरणा एवं नई चेतना दी है. इतिहास नारी के उज्ज्वल आदर्श एवं तप-त्याग-निष्ठ जीवन का साक्षी है. श्रमण-संस्कृति में नारी का महत्त्व-श्रमण-संस्कृति समता और साभ्यभाव की संस्कृति है. वह आत्मविश्वास एवं गुण-विकास को महत्व देती है. श्रमण संस्कृति के महान् उन्नायकों ने आत्म-साधना के क्षेत्र में जाति-भेद, वर्ग-भेद, और रंग-भेद आदि को कभी स्वीकार नहीं किया. श्रमण भगवान् महावीर का यह वच आघोष रहा है कि साधना करने का, आत्म-विकास करने का, मुक्ति प्राप्त करने का सबको समान रूप से अधिकार है. आत्मस्वरूप की दृष्टि से विश्व की समस्त आत्माएँ एक-सी हैं. जो अनन्त गुण युक्त आत्म-ज्योति पुरुष में है, वैसी ही आत्म-ज्योति नारी में है. अतः साधना के क्षेत्र में नर-नारी के भेद का कोई मूल्य नहीं है. मूल्य है राग-द्वेष पर, काम-क्रोध पर, कषायों की आग पर विजय पाने का. जो व्यक्ति-भले ही स्त्री हो या पुरुष, राग द्वेष क्षय कर देता है, वही महान् है, विश्व-वंद्य है. उस युग में जब कि वैदिकपरम्परा का जोर था और उसमें स्त्री एवं शूद्र को धर्म-साधना करने का, वेद पढ़ने एवं सुनने का कोई अधिकार नहीं था, श्रमण भगवान् महावीर ने नारी को अपने संघ में पुरुष के समान स्थान एवं समान अधिकार दिया और निर्भयता पूर्वक यह घोषित किया कि नारी भी साधना के द्वारा अपने जीवन का विकास कर सकती है. आत्मा के परमलक्ष्य मुक्ति को प्राप्त कर सकती है. अनन्त शान्ति का साक्षात्कार कर सकती है. उस युग में भगवान महावीर की यह एक महान् क्रान्ति थी, जिसके लिये उन्हें हजारों-हजार गालियां दी गईं, उनका प्रबल विरोध भी किया गया. परन्तु वह सत्य एवं अहिंसा का अधिदेवता इससे डरा नहीं, विकंपित नहीं हुआ. वह अविचल भाव से सत्य का नाद गुंजाता रहा और विना किसी भेद-भाव के सबको सत्य का, साधना का पथ दिखाता रहा. उसकी चरणसेवा में पुरुष आया तो उसे भी साधना का पथ दिखाया और जब नारी उसकी सेवा में पहुँची तो उसे
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