Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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श्राचार्य मुनिजिनविजय : वैशालीनायक चेटक और सिंधुसौवीर का राजा उदायन : ५८५
इस प्रकार महासेन प्रद्योत को वीतभय के उदायन का आज्ञांकित माना जाता है.
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उदायन का पिछला जीवन उदायन के राजकीय जीवन सम्बन्धी उल्लिखित सारी घटनाएँ बाद के जैन-ग्रंथों में मिलती हैं. भगवती जैसे मूल आगम में उदायन के विषय में केवल इतना ही वर्णन मिलता है : एक बार भगवान् महावीर वीतिभय पधारे. उदायन राजा उनके दर्शन के लिये गया और उनका उपदेश सुनकर उसने प्रव्रज्या लेने का विचार किया. प्रव्रज्या लेने के पूर्व उसके मन में एक विलक्षण विचार आया. उसने सोचा-'प्रायः राज्यप्राप्ति होने पर लोग दुर्व्यसनी हो जाते हैं और दुर्व्यसनी लोग मर कर नरक में जाते हैं. कहीं मेरा पुत्र 'अभीति' राज्य पाकर दुर्व्यसनी न बन जाय और मर कर नरकवासी न हो जाय. यह सोचकर उसने अपने पुत्र अभीतिकुमार को राज्य न देकर अपने भानजे केशीकुमार को राज्य दिया और प्रवज्या ग्रहण की. पिता के इस व्यवहार से अभीतिकुमार बहुत क्रुद्ध हुआ और वह अपना सारा सामान लेकर मौसेरे भाई कोणिक के पास 'चंपा' चला गया और वहीं रहने लगा. पिता के साथ उसकी वैरवृत्ति आजीवन रही और वह वहीं मर गया. इस विषयक भगवती सूत्र का पाठ यह है : 'तए णं से उदायणे राया समण स भगवो महावीरस्स अंतियं धम्म सोच्चा निसम्म हहतु? उट्ठाए उठेइ २ त्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो जाव नमंसित्ता एवं वयासी–एवमेयं भंते ! तहमेयं भंते ! जाव से जहेयं तुझे वदहत्ति कटु जं नवरं देवानुप्पिया......अहं देवाणुप्पियाणं अंतिए मुंडे भवित्ता जाव पब्वयामि ........तए णं तस्स उदायणस्स रन्नो अयभेयारूवे अभत्थिए जाव समुष्पज्जित्था एवं खलु अभीई कुमारे ममं एगे पुत्ते इट्टे कते जाव किमगं पुण पासण्याए? तं जति णं अहं अभीई कुमारं रज्जे ठावित्ता समणस्स भगवनो महावीरस्स अंतियं मुंडे भवित्ता जाव पव्वयामि तो णं अभीई कुमारे रज्जे य र? य जाव जणवए माणुस्सएसु य कामभोगेसु मुच्छिए गिद्ध गढिए अमोव
किन्तु मंदसौर नाम जो इस समय के नक्शों आदि में प्रसिद्ध है, इसकी असलियत को अभी तक कोई समझ नहीं सका. हां डाक्टर भगवानलाल इन्द्र जी ने एक बार मुझसे कहा था कि-'इसका नाम मंद-दसपुर पड़ा होगा.' 'मंद' अर्थात् दुखी बना हुआ. मुसलमानों ने इस शहर की और हिन्दू देवालयों की बड़ी दुर्दशा की थी. इसी वजह से आज भी नागर ब्राह्मण यहाँ का पानी नहीं पीते. 'एक बार मैंने यहाँ के एक पंडित से इस गांव का असली नाम पूछा था. तब उसने बताया था कि इस गांव का मन्नदशौर' भी नाम था. इस सम्बन्ध में मि० एफ० एस० ग्राउक की सूचना भी काफी महत्त्व रखती है. वे कहते हैं किमंदसौर में दो गांवों का समावेश होता है. एक 'मद्' और दूसरा 'दशौर'. मद् जिसे आज 'अफझलपुर' कहते हैं, जो मंदसौर से दक्षिण पूर्व में ग्यारह मील दूरी पर है. ऐसा कहा जाता है कि-'मद्' गांव के हिन्दुदेवालयों को तोड़ कर उनके पत्थरों से यहाँ का किला बनाया गया था. इसलिए मंदसौर यह नाम पड़ा हो. जो भी हो, सही बात का तो 'दशपुरमहात्म्य' नामक पुस्तक से ही पता लग सकता है. यह पुस्तक मुझे देखने को नहीं मिली. इस लेख के सिवा उषवदान के नाशिक के एक प्राचीन लेख की तीसरी पंक्ति में 'दशपुर' ऐसा संस्कृत नाम आया है. (देखो आर्की० सर्वे० वैस्ट इ० पु० ४ पृ० ५१, ६६ पन्ने ५२, नं० ५) तथा मंदसोर के भी एक दूसरे लेखमें भी यही नाम देखने में आता है. इसकी तिथि विक्रम संवत् १३२१ (ई०स० १२६४-६५) गुरुवार भाद्रपद शुक्ला पंचमी है. यह लेख किले के पूर्व तरफ के प्रवेशद्वार के अन्दर के दरवाजे के बाईं ओर भीत पर चुने हुए एक श्वेत पत्थर पर अंकित है. तथा वृहद् संहिता १४, ११, १६ (देखो कर्ण का अनुवाद जर्न० सं० ऐ० सो० नॉ० सं० पु० ५ पृ० ८३) के अवन्ति के साथ इसी नाम का उल्लेख किया है.
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