Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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५८४ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : तृतीय अध्याय
विशाल सेना के साथ उज्जैनी पर चढ़ाई करने के लिये चल पड़ा. उस समय जेठ महीना चल रहा था. मार्ग में पानी नहीं मिलने से उदायन की सेना को बहुत कष्ट उठाना पड़ा. जब वह पुष्करणा प्रदेश में आया तब कहीं जाकर शांति मिली. वहाँ कुछ समय तक विश्राम करने के बाद पूरी तैयारी के साथ उज्जैनी पर चढ़ाई कर दी. इधर प्रद्योत ने भी अपनी तैयारी कर ली थी. दोनों सेनाओं में धनघोर युद्ध होने लगा. कुछ समय बाद दोनों राजाओं को ख्याल आया कि व्यर्थ ही प्रजा का ध्वंस करने से क्या लाभ ? क्यों न हम दोनों ही परस्पर युद्ध करें ? दोनों ने एक दूसरे को दूत द्वारा संदेश भेजा. दोनों इस बात पर राजी हो गये. साथ ही दोनों ने रथ पर बैठ कर युद्ध करने का निश्चय किया. किन्तु युद्ध के मैदान में प्रद्योत रथ के बजाय अपने प्रसिद्ध नलगिरि हाथी पर बैठ कर लड़ने आया. उदायन चण्डप्रद्योत की धूर्तता को पहचान गया. अब दोनों में काफी समय तक युद्ध होता रहा उदायन ने अपने बाणों से हाथी के पैर को बींध दिया जिससे वह घायल होकर जमीन पर गिर पड़ा और प्रद्योत पकड़ा गया. उदायन के सैनिक प्रद्योत को बन्दी बनाकर अपने शिविर में ले आये और 'दासीपति प्रद्योत' शब्दों से उसका मस्तक अंकित कर दिया. उदायन प्रद्योत को कैद करके वीतिभय लौट चला, मार्ग में वर्षा ऋतु प्रारम्भ हो गई. वर्षा का समय व्यतीत करने के लिये उदायन ने एक अच्छे स्थल पर अपनी छावनी डाल दी. सेना को दस विभागों में विभक्त कर उसकी अलगअलग छावनियाँ बनाई. साथ ही सेना की सुरक्षा के लिये चारों ओर मिट्टी की दीवारें खड़ी कर दी. उदायन जो भोजन करता था वह प्रद्योत को भी दिया जाता था. पर्युषण पर्व आया. उन दिन रसोइये ने प्रद्योत से पूछा-महाराज, आज आप क्या खायेंगे ? प्रद्योत ने समझा कि आज मुझे भोजन में जहर दिया जाने वाला है तभी तो मुझे अकेले खाने का निमंत्रण दिया जा रहा है. उसने रसोईये से कहा-'आज क्यों पूछ रहे हो' उत्तर मिला, 'आज पर्दूषण होने से उदायन राजा को उपवास है. इसलिए आज आपके लिये ही भोजन बनेगा' प्रद्योत ने कहा 'तो आज मेरा भी उपवास है. जब उदायन ने यह सुना तो वह प्रद्योत की धूतंता पर बहुत हँसा. उसने सोचा, ऐसा पर्युषण मनाने से क्या लाभ जिसमें हृदय की शुद्धता नहीं ? उदायन ने उसे अपने पास बुलाया और हृदय से उसे क्षमा दान दिया. उसे उसका राज्य पुनः लौटाकर मुक्त कर दिया और उसका मस्तक सुवर्णपट्ट से विभूषित कर उसे आदरपूर्वक विदा कर दिया. वर्षाकाल के बीतने पर वहाँ से उदायन चल पड़ा और अपनी सेना के साथ वापिस अपने नगर लौट आया. उदायन ने जिस स्थल पर अपनी सेनाओं की दस विभागों में छावनियाँ डाल रक्खी थी, वहाँ पर उन सेनाओं को रसद पहुंचाने के लिये आस पास के व्यापारियों ने भी अपने-अपने पड़ाव डाल रक्खे थे, सेना के चले जाने के बाद वे व्यापारीगण वहीं स्थायी रूप से बस गये और वह स्थल दसपुर के नाम से प्रसिद्ध हुआ.'
१. आवश्यक चूर्णि पृ० २९६-३०० मध्य प्रदेश के 'मंदसौर' शहर को दशपुर कहा जाता है. मंदसौर का नाम पुराने लेखों में 'दशपुर' लिखा जाता था. 'दशपुर' का नाम मंदसौर कैसे पड़ा, इस विषय में डा० फ्लीटने Corpus Inescriptionum indiarum नामक ग्रंथ के तीसरे भाग में इस प्रकार लिखा है : "इस गांव को इन्दौर तक के और आस पास के ग्रामीण लोग मन्दसौर के बजाय, 'दशोर' ही कहते हैं. लगभग डेढ़ सौ वर्ष पूर्व लिखी गई अत्रत्य और फारसी भाषा की सनदों में भी 'दशोर का ही प्रयोग किया है. जिस प्रकार बेलगांव जिले के 'उगरगोल' और 'संपगाम' को पंडित लोग क्रमशः 'नखपुर' और 'अहिपुर' लिखते हैं वैसे ही यहाँ के पंडित दशपुर का ही प्रयोग करते हैं. इनका मूल नाम संस्कृत में था या मूल ग्रामीण नामों को पण्डितों ने संस्कृत में बना डाला, यह शंकास्पद ही है. पहले इस स्थल पर पौराणिक राजा दशरथ' का नगर था." ऐसा स्थानीय लोग कहते हैं. अगर यह कथन सत्य है तो इस गांव का नाम 'दशरथोर' होना चाहिए. वस्तुत इसका सही अर्थ यह भी हो सकता है जैसे—इस समय इस नगर में आस पास के खिलचीपुर, जंकुपुरा, रामपुरिया, चन्द्रपुरा, बालागंज आदि बारह तेरह गांवों का समावेश हुआ है, वैसा ही दस गांवों (पुर) का समावेश होने से यह दशपुर के नाम से प्रसिद्ध हो गया हो.
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