Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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मुनि श्रीनथमलजी
उपनिषद्, पुराण और महाभारत में
श्रमण संस्कृति का स्वर
श्रमण परम्परा आत्म-विद्या की परम्परा है. वह उतनी ही प्राचीन है, जितनी प्राचीन आत्म-विद्या है. भारतीय विद्याओं में आत्म-विद्या का स्थान सर्वोच्च है. जो व्यक्ति आत्मा को नहीं जानता, वह बहुत कुछ जानकर भी ज्ञानी नहीं बन पाता. शौनक ने अंगरा से पूछा-'भगवन् ! वैसा क्या है ? जिसे जान लेने पर सब कुछ जान लिया जाय.'' उपनिषदों में इसका उत्तर है-'आत्मा को जान लेने पर सब कुछ जान लिया जाता है.' यह श्रमण-संस्कृति का प्रधान स्वर है. आत्म-विद्या क्षत्रिय परम्परा के अधीन रही है. पुराणों के अनुसार क्षत्रियों के पूर्वज भगवान् ऋषभ हैं.२ श्रीमद्भागवतकार के अभिमत में भगवान् ऋषभ मोक्षधर्म के प्रवर्तक अवतार हैं. भगवान् ऋषभ के सौ पुत्र थे. उनमें नौ पुत्र वातरशन श्रमण बने. वे प्रात्म-विद्या विशारद थे.४ भगवान् ऋषभ ने जिस आत्म-विद्या और मोक्ष-विद्या का प्रवर्तन किया, वह मुदीर्घ काल तक क्षत्रियों के आधीन रही. वृहदारण्यक और छान्दोग्य उपनिषद् में हम देख पाते हैं कि अनेक ब्राह्मण ऋषि क्षत्रिय राजाओं के पास आते हैं और आत्म-विद्या का बोध लेते हैं.५ विन्टरनित्ज के मत में दार्शनिक चिन्तन (अथवा जागरण) ब्राह्मण युग के पश्चात् नहीं, पूर्व शुरु हो चुका था. स्वयं ऋग्वेद में ही कुछ ऐसे सूक्त हैं जिनमें देवताओं में और पुरोहितों की अद्भुत शक्ति में जनता के अन्धविश्वास के प्रतिकुछ सन्देह स्पष्ट हो चुके हैं.६
१. मुण्डकोपनिषद् ११.३. २. (क) ब्रह्माण्ड पुराण, पूर्वार्ध छनुषंगपाद, अध्याय १४, श्लोक ६०.
ऋषभं पार्थिव श्रेष्ठं सर्व-क्षत्रस्य पूर्वजम् । ऋषभाद् भरतो जज्ञे वीरः पुत्र-शताग्रजः। (ख) वायुमहापुराण, पूर्वार्ध, अध्याय ३३, श्लोक ५०. नाभिस्त्वजनयत्पुत्रं मरुदेव्यां महायुतिः ।
ऋषभं पार्थिव-श्रेष्ठं सर्व-क्षत्रस्य पूर्वजम् । ३. श्रीमद्भागवत ११।२।१६ (गीताप्रेस गोरखपुर, प्रथम संस्करण)
तमाहुर्वासुदेवांशं मोक्षधर्मविवक्षया ।
अवतीणं सुतशतं तस्यासीद् ब्रह्मपारगम् । ४. श्रीमद्भागवत ११।२।२०.
नवाभवन् महाभागा मुनयो बर्थशंसिनः ।
श्रमण वातरशना आत्म-विद्या विशारदाहः । ५. छान्दोग्य उपनिषद् ५५३, ५।११ (३ संस्करण), वृहदारण्यक ६१२, २११ (२ संस्करण). ६. प्राचीन भारतीय साहित्य, प्रथम भाग, प्रथम खण्ड पृष्ठ १८२ (मोतीलाल बनारसीदास).
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