Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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मुनि नथमल : उपनिषद्, पुराण और महाभारत में श्रमणसंस्कृति का स्वर : १७७ आत्मन्येवात्मना जात अात्मनिष्ठोऽप्रजाऽविपा,
आत्मन्येव भविष्यामि न मां तारयति प्रजा. मैं संतान रहित होने पर भी आत्मा में ही आत्मा द्वारा उत्पन्न हुआ हूं और आत्मा में ही स्थित हूं. आगे भी आत्मा में ही लीन हो जाऊंगा. सन्तान मुझे पार नहीं उतारेगी.
नैतादृशं ब्राह्मणस्यास्ति वित्तं, यथैकता समता सत्यताच,
शीलस्थितिर्दण्डनिधानमार्जवं, ततस्ततश्चोपरमः क्रियाभ्यः. परमात्मा के साथ एकता तथा समता, सत्य-भाषण, सदाचार, ब्रह्मनिष्ठा दण्ड का परित्याग (अहिंसा), सरलता तथा सब प्रकार के सकाम कर्मों से उपरति-इनके समान ब्राह्मण के लिये दूसरा कोई धन नहीं है. ब्राह्मण देव पिता! जब आप एक दिन मर ही जायेंगे तो आपको इस धन से क्या लेना है अथवा भाई-बन्धुओं से
आपका क्या काम है तथा स्त्री आदि से आप का कौन सा प्रयोजन सिद्ध होने वाला है. आप अपने हृदयरूपी गुफा में स्थित हुए परमात्मा को खोजिए. सोचिए तो सही आपके पिता और पितामह कहां चले गए ?" वैदिक विचार-धारा वह है, जो श्लोक में पिता ने पुत्र से कही. मनुस्मृति से भी इसी तथ्य की पुष्टि होती है. वहां लिखा है—'जो ब्राह्मण वेद पढ़े विना, सन्तान उत्पत्ति किए विना तथा यज्ञों का अनुष्ठान किए (ऋषि, ऋण, पितृऋण और देव-ऋण से उऋण हुए) विना संन्यास धारण की इच्छा करता है, वह नीच गति को प्राप्त होता है. इस मान्यता के विपरीत मेधावी ने अपने पिता से कहा वह अवैदिक विचारधारा है. वह श्रमण-विचार धारा का मंतव्य है. पौराणिक धर्म कृष्ण के व्यक्तित्व को केन्द्रबिन्दु मानकर विकसित हुआ है. कृष्ण का धर्म वैदिक सिद्धान्तों से भिन्न था. कृष्ण का व्यक्तित्व उत्पत्ति से अवैदिक था. ऐसे अभिमत को पूर्वपक्ष के रूप में उद्धृत करते हुए लक्ष्मण शास्त्री ने लिखा है. 'पौराणिक धर्म की एक विशेषता यह है कि उसके मुकाबले में यज्ञ-संस्था एकदम पिछड़ गई. भागवत-धर्म में वेदविहित यज्ञों को दोषपूर्ण बतलाया गया है, उनकी निन्दा की गई है. इसके आधार पर इतिहास के कई पण्डित यह सिद्ध करने का प्रयत्न करते हैं कि पौराणिक-संस्कृति तथा वेदों की संस्कृति में विरोध है और पौराणिक धर्म वास्तव में अवैदिकों के वेदपूर्व काल से चलते आए धर्म की वह नवीन व्यवस्था है जिसे वैदिकों ने बड़े समन्वय पूर्वक तैयार किया है. उपपत्ति को सिन्ध प्रान्त में उत्खनन में पाए गए तीन हजार वर्गों के पूर्ववर्ती सांस्कृतिक अवशेषों से पुष्टि मिलती है. यह अनुमान किया है कि उस उन्नत संस्कृति के लोगों में योग-विद्या तथा लिंगरूप शिव की पूजा तो अवश्य विद्यमान थी, परन्तु उनमें वेदों की याज्ञिक याने यज्ञ पर आधारित संस्कृति नहीं थी. इस अनुमान के लिये पर्याप्त सामग्री इस उत्खनन में पाई गई है. ध्यानस्थ शिव की मूर्ति तथा पूजनीय शिश्न-समान लिंग वहां उपलब्ध हुए हैं.५ मार्कण्डेय पुराण में भी पिता और पुत्र का संवाद है. पिता नाम भार्गव है और पुत्र का नाम है सुमति. भार्गव ने सुमति से कहा---'पुत्र ! पहले वेदों को पढ़ो, गुरु सुश्रूषा में संलग्न रहो, भिक्षान्न खायो, फिर गृहस्थ बनो, यज्ञ करो, सन्तान उत्पन्न करो, बनवासी बनो फिर परिव्राजक-इस क्रम से ब्रह्म की प्राप्ति करो'.६
१. महाभारत शान्तिपर्व अध्याय १७५, श्लोक ५-१४, ३६. ३१-३८, २. मनुस्मृति ६-३७.
अनधीत्य द्विजो वेदान्, अनुत्पाद्य तथा सुतान् , __ अनिष्ट्वा चैव यज्ञश्च, मोक्ष मिच्छन् बजत्यथः । ३. उत्तराध्ययन १४. ४. जर्नल आफ ओरियन्टल इन्स्टीट्यूट, भाग १२. भाग नं० ३, पृष्ठ २३२-२३७. ५. वैदिक संस्कृति का विकास पृष्ठ १५४-५५ (साहित्य एकादमी दिल्ली की ओर से हिन्दी ग्रन्थ रत्नाकर प्रा० लि. द्वारा प्रकाशित). ६. मार्कण्डेय पुराण, अध्याय १०, श्लोक १०-१३ (श्री वेंकटेश्वर मुद्रणालय, बम्बई).
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