Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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साध्वी श्रीनिर्मलाश्री रिसर्च स्कॉलर, प्राकृत जैन विद्यापीठ, मुजफ्फरपुर
जैनमतानुसार अभाव-प्रमेयमीमांसा
प्रत्येक पदार्थ अपने लक्षण से ही ज्ञात होता है. घट की सजातीय और विजातीय पदार्थों से व्यावृत्ति करके ज्ञाता उसका ज्ञान करता है. यदि घट का ज्ञान करते समय सजातीय और विजातीय पदार्थों की व्यावृत्ति न की जाय, तो घट के निश्चित रूप का ज्ञान नहीं हो सकता है. अतः सभी पदार्थ सदसदात्मक हैं. उनमें सद् अंश को भाव या विधि कहा जाता है (विधिः सदंश इति) और असद् अंश को प्रतिषेध अर्थात् अभाव कहा जाता है. जैसे प्रमाणनयतत्त्वालोकालंकार में वादि-देवसूरि ने कहा है---'प्रतिषेधोऽसदंश इति'. यदि पदार्थ को सदसदात्मक न माना जाय किन्तु केवल सद् रूप ही माना जाय तो किसी भी वस्तु के स्वरूप का ज्ञान नहीं हो सकेगा, क्योंकि प्रत्येक वस्तु अभावरूप और व्यावृत्तिरूप होने पर ही स्वरूप-युक्त कही जाती है. इसी तरह वस्तु को सर्वथा अभाव रूप माना जाय तो वस्तु का स्वरूप ही सिद्ध नहीं होगा. अतएव प्रत्येक पदार्थ स्वरूप से सत् और पर रूप से असत् होने के कारण भाव और अभाव रूप है. आचार्य श्रीहेमचन्द्र ने भी अपनी प्रमाणमीमांसा में इसी बात का समर्थन किया है :
सर्वमस्ति स्वरूपेण, पर-रूपेण नास्ति च । अन्यथा सर्वसत्त्वं स्यात् स्वरूपस्याप्यसंभवः ।
प्रत्येक वस्तु स्व-स्वरूप से विद्यमान है और पर-स्वरूप से अविद्यमान है. यदि वस्तु को पररूप से भी भावरूप स्वीकार किया जाय तो एक वस्तु के सद्भाव में संपूर्ण वस्तुओं का सद्भाव मानना चाहिए, और यदि वस्तु को स्वरूप से भी अभावरूप माना जाय तो वस्तु को सर्वथा स्वभाव-रहित मानना चाहिए, जो कि वस्तुस्थिति से विपरीत है. अर्थात् यदि वस्तु को अभावात्मक यानी सर्वथा शून्य ही माना जाय तो वाक्य का भी अभाव होने से--अभावात्मक तत्त्वकी स्वयं प्रतीति कैसे होगी? तथा दूसरे को कैसे समझाया जायगा? स्वप्रतिपत्ति का साधन है बोध, तथा पर-प्रतिपत्ति का उपाय है वावय. इन दोनों के अभाव में स्वपक्ष का साधन और पर-पक्ष का दूषण कैसे हो सकेगा ? इस तरह विचार करने से लोक का प्रत्येक पदार्थ भावाभावात्मक प्रतीत होता है. जो वादी वस्तु को पर-रूप से असत् नहीं मानते हैं, उन्हें घट को सर्वात्मक मानना चाहिए, क्योंकि घट जिस तरह स्वरूप से सत् है, यदि उसी तरह पररूप से भी सत् हो तो घट किसी भी रूप से असत् न होने के कारण उस (घट) को सर्वात्मक मानना चाहिए, किन्तु वस्तुस्थिति वैसी नहीं है. अतः पररूप से असत् मानने से ही पदार्थ के निश्चित स्वरूप का ज्ञान हो सकता है. स्व-सत्त्व को ही पर-असत्त्व नहीं कहा जा सकता, क्योंकि विधि और प्रतिषेध दो विरोधी धर्म हैं; यदि कहा जाय कि जैनसिद्धान्तानुसार भी एक ही जगह विधि और प्रतिषेध माना जाता है तो यह कथन भी उचित नहीं है। क्योंकि जैन वस्तु के जिस अंश को सत् मानते हैं उसी अंश को असत् नहीं मानते हैं, तथा उसके जिस अंश को असत् मानते हैं, उसी अंश को सत् नहीं मानते हैं. जैन सिद्धान्तानुसार वस्तु न सत् है, न असत् ; पर सदसदात्मक
१. तृतीय परिच्छेद, सूत्र ५७. २. पृ० १२.
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