Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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डा० इन्द्रचन्द्र शास्त्री: श्रावकधर्म : ११
लिये उसका अनुष्ठान करता है. समता का अर्थ 'स्व' और 'पर' में समानता. जैनधर्म का कथन है कि जिस प्रकार हम सुख चाहते हैं और दुःख से घबराते हैं, उसी प्रकार प्रत्येक प्राणी चाहता है. हमें दूसरे के साथ व्यवहार करते समय उसके स्थान पर अपने को रखकर सोचना चाहिए, उसके कष्टों को अपना कष्ट, उसके सुख को अपना सुख मानना चाहिए. समता के इस सिद्धान्त पर विश्वास रखने वाला व्यक्ति किसी की हिंसा नहीं करेगा. किसी को कठोर शब्द नहीं कहेगा और न मन में किसी का बुरा सोचेगा. पहले बताया जा चुका है कि व्यवहार में समता का अर्थ है अहिंसा जो जैनशास्त्र का प्राण है. विचारों में समता का अर्थ है स्याद्वाद, जो जैनदर्शन की आधारशिला है. प्रतिक्रमण का अर्थ है वापिस लौटना. साधक अपने पिछले कृत्यों की ओर लौटता है. उनके भले-बुरे पर विचार करता है, भूलों के लिये पश्चात्ताप करता है और भविष्य में उनसे बचे रहने का निश्चय करता है. श्रावक और साधु दोनों के लिये प्रतिक्रमण का विधान है. इसका दूसरा नाम आवश्यक है अर्थात् यह एक आवश्यक दैनिक कर्तव्य है. श्रावक के व्रतों में सामायिक का नवां स्थान है किन्तु आत्मशुद्धि के लिये विधान किये गए चार व्रतों में इसका पहला स्थान है इसके पांच अतिचार निम्नलिखित हैं : १. मनोदुष्प्रणिधान-मन में बुरे विचार आना. २. वचनदुष्प्रणिधान-वचन का दुरुपयोग, कठोर या असत्य भाषण. ३. कायदुष्प्रणिधान—शरीर की कुप्रवृत्ति. ४- स्मृत्यकरण-सामायिक को भूल जाना अर्थात् समय आने पर न करना. ५. अनवस्थितता-सामायिक को अस्थिर होकर या शीघ्रता में करना निश्चित विधि के अनुसार न करना.
देशावकाशिक व्रत
इस व्रत में श्रावक यथाशक्ति दिन-रात या अल्प समय के लिये धर्म के लिये साधु के समान चर्या का पालन करता है. सामायिक प्रायः दो घड़ी के लिये की जाती है और सारा समय धार्मिक अनुष्ठान में लगाया जाता है. खाना, पीना, नींद लेना आदि वजित हैं किन्तु इस व्रत में भोजन आदि वजित नहीं है किन्तु उनमें अहिंसा का पालन आवश्यक है. इस व्रत को देशावकाश कहा जाता है. अर्थात् इसमें साधक निश्चित काल के लिये देश या क्षेत्र की मर्यादा करता है, उसके बाहर किसी प्रकार की प्रवृत्ति नहीं करता. श्रावक के लिये चौदह नियमों का विधान है अर्थात् उसे प्रतिदिन अपने भोजन, पान तथा अन्य प्रवृत्तियों के विषय में मर्यादा निश्चित करना चाहिए. इससे जीवन में अनुशासन तथा दृढ़ता आती है. वे निम्नलिखित है : १. सचित्त- प्रतिदिन अन्न, फल, पानी आदि के रूप में जिन सचित्त अर्थात् जीवसहित वस्तुओं का सेवन किया जाता है उनकी मर्यादा निश्चित करना. यह मर्यादा संख्या, तोल एवं वार के रूप में की जाती हैं. २. ध्य-खाने, पीने सम्बन्धी वस्तुओं की मर्यादा, उदाहरण के रूप में भोजन के समय अमुक संख्या से अधिक भोजन नहीं ग्रहण करूंगा. ३. विगय-घी, तेल, दूध, दही, गुड़ और पक्वान्न की मर्यादा. ४. पण्णी--- उपानहं-(जूते, मोजे, खड़ाऊं आदि पैर में पहनी जाने वाली वस्तुओं) की मर्यादा. ५. ताम्बूल-पान, सुपारी, इलायची, चूर्ण, खटाई आदि की मर्यादा. ६. वस्त्र प्रतिदिन वस्त्रों के पहनने की मर्यादा. ७. कुसुम-फूल, इत्र आदि सुगन्धित पदार्थों की मर्यादा. ८. वाहन-सवारी की मर्यादा. है. शयन शैय्या एवं स्थान की मर्यादा.
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