Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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डा० इन्द्रचन्द्र शास्त्री : श्रावकधर्म : २०६
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दिशा-परिमाण-व्रत पांचवें व्रत में सम्पत्ति की मर्यादा स्थिर की गई. छठे दिशापरिमाण व्रत में प्रवृत्तियों का क्षेत्र सीमित किया जाता है. धावक यह निश्चय करता है कि ऊपर नीचे एवं चारों दिशाओं में निश्चित सीमा से आगे बढ़कर मैं कोई स्वार्थमूलक प्रवृत्ति नहीं करूंगा. साधु के लिये क्षेत्र की मर्यादा का विधान नहीं है क्योंकि उसकी कोई प्रवृत्ति हिंसात्मक या स्वार्थमूलक नहीं होती. वह किसी को कष्ट नहीं पहुंचाता प्रत्युत धर्म-प्रचारार्थ ही घूमता है. विहार अर्थात् धर्म-प्रचार के लिये घूमते रहना उसकी साधना का आवश्यक अंग है किन्तु श्रावक की प्रवृत्तियां हिंसात्मक भी होती हैं अतः उनकी मर्यादा स्थिर करना आवश्यक है. विभिन्न राज्यों में होने वाले संघर्षों को रखकर विचार किया जाय तो इस व्रत का महत्त्व ध्यान में आ जाता है और यह प्रतीत होने लगता है कि वर्तमान युग में भी इस का कितना महत्त्व है. यदि विभिन्न राज्य अपनी-अपनी राजनीतिक एवं आर्थिक सीमाएं निश्चत करलें तो बहुत से संघर्ष रुक जाएं. श्रीजवाहरलाल नेहरू ने राष्ट्रों में परस्पर व्यवहार के लिये पंचशील के रूप में जो आचार-संहिता बनाई थी उसमें इस. सिद्धान्त को प्रमुख स्थान दिया है कि कोई राज्य दूसरे राज्य में हस्तक्षेप नहीं करेगा. इस व्रत के पांच अतिचार निम्नलिखित हैं : १. ऊर्व दिशा में मर्यादा का अतिक्रमण. २. अधो दिशा में मर्यादा का अतिक्रमण. ३. तिरछी दिशा अर्थात् पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण में मर्यादा का अतिक्रमण. ४. क्षेत्रवृद्धि-अर्थात् असावधानी या भूल में मर्यादा के क्षेत्र को बढ़ा लेना. ५. स्मृति-अन्तर्धान-मर्यादा का स्मरण न रखना,
उपभोगपरिभोग-परिमाण-व्रत सातवें व्रत में वैयक्तिक आवश्यकताओं पर नियंत्रण किया गया है. उपभोग का अर्थ है भोजन-पानी आदि वस्तुएं जो अनेक बार काम में लाई जा सकती हैं. उपभोग और परिभोग शब्दों का उपरोक्त अर्थ भगवती शतक ७ उद्देशा २ में तथा हरिभद्रीयावश्यक अध्ययन ६ सूत्र ७ में किया गया है. उपासकदशांग सूत्र की अभयदेव टीका में उपरोक्त अर्थ के साथ विपरीत अर्थ भी दिया गया है अर्थात् एक बार काम में आने वाली वस्तु को परिभोग तथा बार-बार काम में आने वाली वस्तु को उपभोग बताया गया है. इस व्रत में दो दृष्टियां रखी गई हैं--भोग और कर्म. भोग की दृष्टि को लक्ष्य में रखकर २६ बातें गिनाई गई हैं जिनकी मर्यादा स्थिर करना श्रावक के लिये आवश्यक है, उनमें भोजन, स्नान, विलेपन, दन्तधावन, वस्त्र आदि समस्त वस्तुएं आ गई हैं. इस से ज्ञात होता है कि श्रावक के जीवन में किस प्रकार का अनुशासन था, किस प्रकार वह अपने जीवन को सन्तोषमय और सादा बनाता है. उनमें स्नान तथा दन्त-धावन आदि का स्पष्ट उल्लेख है. अतः जैनियों पर गन्दे रहने का जो आरोप लगाया जाता है वह मिथ्या है, अपने आलस्य या अविवेक के कारण कोई भी गन्दा रह सकता है-वह जैन हो या अजैन, उसके लिये धर्म को दोष देना उचित नहीं है. दूसरी दृष्टि कर्म की अपेक्षा से है. श्रावक को ऐसी आजीविका नहीं करनी चाहिए जिसमें अधिक हिंसा हो, जैसे-कोयले बनाना, जंगल साफ करना, बैल आदि को नाथना या खस्सी करना आदि. उसको ऐसे धन्धे भी नहीं करना चाहिए जिनसे अपराध या दुराचार की वृद्धि हो, जैसे—दुराचारिणी स्त्रियों को नियुक्त करके वैश्यावृत्ति कराना, चोर, डाकुओं को सहायता देना आदि. इसके लिये १५ कर्मादान गिनाए गए हैं. उपरोक्त २६ बातों तथा १५ कर्मादानों को विस्तृत रूप में जानने के लिये उपासकदशांग सूत्र का प्रथम आनन्द-अध्ययन देखना चाहिए.
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