Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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कल्याणविजय गणि जैन श्रमणसंघ की शासनपद्धति ५४५
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२. कुल स्थविर और उनके अधिकार—उपर्युक्त कुल का प्रमुख आचार्य 'कुलस्थविर' कहलाता था. कुल की व्यवस्था और उस पर शासन करना इस स्थविर के अधिकार में रहता था.
३. गण-समान आचार और क्रियावाले दो से अधिक कुलों की संयुक्त समिति को 'गण' कहते थे.
४. गणस्थविर और उनके अधिकार - उक्त गण का प्रमुख आचार्य 'गणस्थविर' कहलाता था.
गण के शासनविभाग के उपरान्त गण का न्यायविभाग भी इस स्थविर के हाथ में रहता था. अपने गण सम्बन्धी और कभी-कभी दो भागों के बीच होने वाले झगड़ों का निपटारा 'गण-स्थिविर' करते थे.
कुल-स्थविरों के कामों पर निगरानी रखना, उनके दिए हुए फैसलों की अपीलें सुनना, संघ स्थविर की सभा में हाजिर होकर उनमें सलाह देना इत्यादि गणस्थिवर के अधिकार के कार्य होते थे.
५. संघ -- उपर्युक्त लक्षण वाले सर्व गणों का संयुक्त मंडल 'संघ' इस नाम से पहचाना जाता था.
६. संघ - स्थविर और उसका अधिकार :
उक्त संघ का प्रमुख आचार्य 'संघ स्थविर' कहलाता था.
प्रमुख की योग्यता से संघ की व्यवस्था करना, गण स्थिविरों के दिए हुए फैसलों की अपीलें सुनना और गणस्थविरों की सलाह से संघ की उन्नति के लिये उचित मर्यादा नियमों का निर्माण करना इत्यादि कार्य संघ स्थविर के अधिकार में रहते थे.
इनमें 'कुल स्थविर' और 'गण-स्थविर' तो अपने कुलों और गणों की परम्परा के ही होते थे, परन्तु संघस्थविर के लिये ऐसा कोई नियम नहीं था. किसी भी कुछ अथवा गण का हो, जो दीक्षापर्याय, शास्त्राभ्यास, स्थितिप्रज्ञता, न्यायप्रियता माध्यस्थ्य आदि प्रमुखोचित गुणों से सबसे अधिक सम्पन्न होता उसी को संघ अपना प्रमुख बना लेता था. ७. युग-प्रधान - जैन समाज में 'युग प्रधान' शब्द जितना प्रसिद्ध है उतना ही इसका वास्तविक अर्थ अप्रसिद्ध है. हमारे बहुतेरे भाइयों का खयाल है कि 'युग-प्रधान' कोई लोकोत्तर पुरुष होता था. जहाँ यह विचरता था वहां दुभिक्षादि उपद्रव नहीं होते थे. उस भाग्यवान् के कई ऐसे शारीरिक अतिशय होते जो दूसरों में नहीं पाये जाते थे. पर वास्तव में ऐसी कोई बात नहीं है. भद्रबाहु, आर्यमहागिरि और वज्रस्वामी जैसे प्रसिद्ध महानुभाव आचार्यों के समय में ऐसे दुष्कालादि उपद्रव हुए थे जिनका वर्णन करते लेखिनी कांपती है फिर भी पूर्वोक्त महापुरुष युगप्रधान थे, यह बात हम सब मानते हैं.
असल बात तो यह है कि जो आचार्य अपने समय के सर्व आगम-सूत्रों का ज्ञाता और अनुयोगधर होने के उपरान्त विविध देशों की भाषा और शास्त्रों का ज्ञाता, देश देशान्तरों में भ्रमण किया हुआ और शान्ति, दाक्षिण्यादि गुण गणविभूषित होता वही 'युगप्रधान ' ( अपने समय का श्रेष्ठ पुरुष ) इस अन्वर्थक नाम से संबोधित होता था. इस प्रकार के 'युगप्रधान ' एक समय में एक से अधिक भी होते थे, उनमें जो दीक्षापर्याय में बड़ा होता उसे 'संघस्थविर' बनाया जाता था. जब तक संघस्थविर कार्यक्षम होते हुए अपने अधिकार पर कायम रहता तब तक दूसरे युगप्रधान गणस्थविर अथवा कुलस्थविर के ही पद पर बने रहते थे, और वृद्ध संघस्थविर का स्वर्गवास होने पर उनमें जो पर्यायवृद्ध होता वह संघस्थविर बनाया जात था ! इस प्रकार 'युगप्रधान ' यह अपने समय के 'सर्वश्रेष्ठ पुरुष' का नाम है.
८. गच्छ —यह 'गच्छ' शब्द पूर्वकाल में ३-४ आदि से लेकर हजारों साधुओं की टुकड़ियों के अर्थ में प्रचलित था. पांच अधिकारियों से बने हुए तथा कालान्तर में गण व्यवस्थापकमण्डल के अर्थ में प्रचलित हुआ और फिर धीरे-धीरे यह गण का पर्याय बन गया है. १२ वीं शती की सूत्रटीकाओं में उनके रचियिताओं ने 'गच्छ' का अर्थ 'कुलों का समूह ' किया है जो तत्कालीन स्थिति के अनुरोध से ठीक कहा जा सकता है सिद्धान्त के अनुसार नहीं.
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