Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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५५० : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : तृतीय अध्याय बहुधा 'गणस्थविर' देते थे. अथवा 'कुलस्थविरों' के इन विषयों में दिए हुए फैसलों की अपील सुनते थे. यदि गणस्थविर को कुलस्थविर के कार्य में पक्षपात अथवा रागद्वेष नजर आता तो तुरन्त वे उसको रद्द कर देते थे. गणस्थविरों के इस व्यवहारविषयक फैसलों की अपील संघस्थविर नहीं सुनता था, कारण कि प्रायश्चित्त-व्यवहार गणों का भीतरी कार्य माना जाता था. संघस्थविर किसी भी गण के किसी भी प्रकार के भीतरी कार्य में तब तक दखल नहीं देता था, जब तक कि वैसा करने के लिए गण की तरफ से उसे अर्ज नहीं की जाती. 'आभवद्व्यवहार' का कानून इससे कुछ भिन्न था. इस व्यवहार के लिये कुल, गण और संघ नामक क्रमशः पहले, दूसरे और तीसरे दर्जे के न्यायालय थे. एक ही कुल के दो संघाड़ों के बीच यदि हकदारी सम्बन्धी कुछ व्यवहार उपस्थित होता तो कुल स्थविर की तरफ से उसका निपटारा किया जाता था और एक गण की दो शाखा या दो कुलों के बीच कुछ व्यवहार खड़ा होता तो गणस्थविर उसका फैसला देता था. इसी प्रकार दो गणों के बीच व्यवहार उपस्थित होने पर किसी तीसरे गणस्थविर के द्वारा उसका निर्णय कराया जाता था, पर मध्यस्थ गणस्थविर यदि मध्यस्थता खोकर किसी एक पक्ष की तरफ झुक जाता तो न्यायार्थी संघसमवाय' करने के वास्ते 'संघप्रधान' को अर्ज करता और संघप्रधान संघसमवाय सम्बन्धी उद्घोषणा करता. संघसमवाय होने सम्बन्धी उद्घोषणा सुनकर सब संघप्रतिनिधि नियत स्थान और समय पर जाते और संघस्थविर भी वहां जाता और उपस्थित व्यवहार की सुनवाई में लग जाता. पहले वह सभा में बैठकर मध्यस्थ गणस्थविर की कार्यवाही सुनता. वहाँ मध्यस्थ स्थविर पक्षपात से शास्त्र-विरुद्ध भाषण करता तो वहां उसे अन्योक्ति से टोकता. यदि वह स्थविर अपनी भूल को कबूल कर लेता तब तो उसे माफी दी जाती थी, पर यदि वह अपना आग्रह नहीं छोड़ता अथवा वह ऐसा अपराध करता जो क्षमा योग्य नहीं होता तो उसकी दीक्षा काट दी जाती और उपस्थित व्यवहार का फैसला संघस्थविर देता जो सर्व संघ को मंजूर करना पड़ता था. यदि व्यवहारच्छेदन के लिये एकत्र मिले हुए संघसमवाय में किसी कारणवश प्रतिवादी हाजिर नहीं होता तो उसे संघ की तरफ से बुलावा भेजा जाता, पहले और दूसरे बुलावे पर यदि वह आ जाता तब तो ठीक, नहीं तो तीसरी बार गणावच्छेदक उसे बुलाने के लिये जाता. प्रतिवादी के पास जाने पर यदि गणावच्छेदक समझता कि प्रतिवादी भय का मारा नहीं आता है तो उसे समझाता'आर्य' संघ पारिणामिक बुद्धि का धनी है, उसको न किसी का राग है, न द्वेष. झगड़े की असलियत समझने के बाद विवादापन्न वस्तु पर किस का हक है सो संघ अपने निर्णय में बतायेगा. यदि प्रतिवादी औद्धत्य अथवा शठता के कारण संघसम्मेलन में आने से इन्कार करता तो वह संघ से बाहर कर दिया जाता था, परन्तु प्रतिवादी अगर अपनी भूल अथवा शठता के बदले में पश्चात्ताप प्रकट करता हुआ संघ से माफी मांगता हा आजीजी करता तो फिर भी संघ उसको माफ करके संघ में दाखिल कर लेता और तब वह प्रतिवादी संघ से कहता-'संघ सर्व प्राणियों का विश्वासस्थान है. भय-भीतों के लिये संघ ही आश्वासन देने वाला है. संघ मातापिता तुल्य होने से किसी पर विषमता नहीं करता. संघ की सब के ऊपर समदृष्टि है. संघ सब के लिने अपना पराया जैसी कोई चीज नहीं है. संघ किसी का पक्षपात नहीं करता.' इस प्रकार संघ के न्याय और ताटस्थ्य पर प्रतिवादी के श्रद्धा प्रकट करने पर संघ उस झगड़े का फैसला देता था. संघ का फैसला आखिरी होता था. उसकी कहीं भी अपील नहीं हो सकती थी. उपसंहार-श्रमणसंघ की शासन-पद्धति का इतिहास बहुत लम्बा है. इसका सम्पूर्ण निरूपण एक लेख में क्या, एक ग्रन्थ में भी किया जाना अशक्य है. फिर भी इसकी मौलिक बातों का दिग्दर्शन हमने इस लेख में करा दिया है. पाठक गण देखेंगे कि हमारे प्राचीन श्रमणसंघ की शासनव्यवस्था का इतिहास कैसा मनोरंजक और अनुकरणीय है. आशा है, हमारा आधुनिक 'श्रमणसंघ' अपने पूर्वाचार्यों की इस व्यवस्थित शासन-पद्धति का अनुसरण करके अपनी वर्तमान शासनप्रणाली को व्यवस्थित बनायेगा.
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