Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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साध्वी श्रीउमरावकुंवरजी जैन-संस्कृति में समाजवाद
'संस्कृत' शब्द से व्युत्पन्न, ‘सम्' उपसर्गपूर्वक 'कृ' धातु से निर्मित शब्द 'संस्कृति' का अर्थ है-'संस्कार-परिष्कार' अतः संस्कारों का समुच्चय ही 'संस्कृति' है. 'संस्कृति' इस छोटे से शब्द के अर्थ-कलेवर में किसी जाति अथवा राष्ट्रविशेष की समस्त आध्यात्मिक-आधिभौतिक सिद्धियां एवं तद्जन्य आस्था-विश्वास, साधना-भावना, आराधना-कामना समाहित हैं. प्रकृतिविजय के निमित्त उठे मानव-जाति के जय-केतु के मध्य में अंकित रहने वाला शब्द 'संस्कृति' ही है, जो किसी राष्ट्र की मूल चेतना, धर्म-दर्शन, तत्त्वचिंतन, एवं लौकिक-पारलौकिक एषणाओं को अपनी निजी विशेषताओंमान्यताओं के साथ उद्घोषित करता है जिससे उसकी अपनी स्वतंत्र सत्ता स्थिर होती है. चलते लोग सभ्यता और संस्कृति में विशेष अन्तर नहीं करते किंतु दोनों में बड़ा अन्तर है-- ठीक वैसा ही जैसा कि 'इकाई' और 'समग्रता' में. यदि सभ्यता संचित जल-राशि है तो संस्कृति उस पर तरंगायित वीचि-विलास की प्रेरक शक्ति. 'लोचन मग रामहिं उर आनी, दीन्हें पलक कपाट सयानी.' इस सिद्ध कवि तुलसी की इस अमृत-वाणी में माता, है सीता व राम की जिस पुण्य-छवि को मन-मन्दिर में प्रतिष्ठित कर पलक-कपाट मूंद लेती है वह 'संस्कृति' एवं 'सभ्यता' है. राम का वह दैहिक रूप जो उसकी मुंदी पलकों के सम्मुख शेष रह जाता है. वस्तुतः 'सभ्यता' मधु-मक्खी का छता है तो संस्कृति उसमें निहित मधु. सभ्यता वृन्ताधारित कंटकमय सदल पुष्प है तो संस्कृति केवल सौरभसुवास. सभ्यता-शरीर है, संस्कृति आत्मा. सभ्यता जीने का तरीका-सलीका, आचार-व्यवहार है तो संस्कृति रूहानियतजिहानियत-'शाश्वत' चितन-सच्चिदानन्द समर्पित श्रद्धांजलि. सुसंस्कृत व्यक्ति निश्चित ही सुसभ्य होगा किंतु यह नहीं कहा जा सकता कि सभ्य व्यक्ति सुसंस्कृत होगा ही. 'सब प्राणी सुख चाहते हैं, दुख से बचना चाहते हैं, जीने की अभिलाषा रखते हैं, कोई कितना ही दुःखी एवं सन्तप्त क्यों न हो, मरना नहीं चाहता. मृत्यु से हर प्राणी डरता है, दुःखी होता है. अत: किसी भी प्राणी को दुःख नहीं देना चाहिए, कष्ट नहीं देना चाहिए, सन्ताप नहीं देना चाहिए, किसी भी प्राणी को गुलाम नहीं बनाना चाहिए और न किसी प्राणी का वध करना चाहिए. 'जैन-संस्कृति अपने सुख के साथ दूसरे की सुख-शान्ति एवं हित के अधिकार को सुरक्षित रखने की बात कहती है. उस का यह वज्रघोष रहा है : 'सुख से रहो और सुख से रहने दो.' वस्तुतः जैन संस्कृति अपने सुख को, अपने हित को, अपने स्वार्थ को और अपनी आकांक्षाओं को विस्तृत बनाने की, उसे विश्व-सुख, विश्व-शान्ति एवं विश्व-हित में परिणत करने की संस्कृति है. यदि सही अर्थ में देखा जाए तो जैन-संस्कृति, विश्व संस्कृति या मानव-संस्कृति का ही दूसरा नाम है. क्योंकि, इसमें प्रत्येक मानव का हित एवं विकास निहित है. विश्व में आज समाजवाद, साम्यवाद और सर्वोदयवाद की विशेष चर्चा है. क्योंकि सामन्तशाही एवं पूंजीवादी उत्पीड़न
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