Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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डा. हरीन्द्रभूषण जैन : प्राचीन भारत की जैन शिक्षण-पद्धति : ५६१ थे. और गुरुजनों का अभिवादन करते थे. दिन के तीसरे पहर में वे भिक्षा मांगते थे. और रात्रि के तीसरे पहर में सोते थे. विद्यार्थी भूल में किये गये अपराधों का प्रायश्चित्त करते थे.' जैन संस्कृति के विद्यार्थी ऊन, रेशम, क्षोम, सन, ताड़पत्र आदि के बने हुए वस्त्रों के लिये गृहस्थ से याचना करते थे. वे चमड़े के वस्त्र या बहुमूल्य रत्न या स्वर्णजटित अलंकृत वस्त्रों को ग्रहण नहीं करते थे. हट्टे-कट्ट विद्यार्थी भिक्षु एक, और भिक्षुणियां चार वस्त्र पहिनती थी.२ समावर्तन-वैदिक काल में अध्ययन समाप्त हो जाने पर विद्यार्थी आचार्य की अनुमति से घर लौट जाते थे. समावर्तन का अर्थ है 'लौटना'. आश्रम छोड़ते समय आचार्य विद्यार्थी को कुछ ऐसे उपदेश देता था जो उसके भावी जीवन की प्रगति में सहायक होते थे. जैन-सूत्रों में भी समार्तन संस्कार का वर्णन मिलता है. छात्र जब अध्ययन समाप्त कर घर वापस आता था तब अत्यन्त समारोह के साथ उसे ग्रहण किया जाता था. 'रक्षित' जब पाटलिपुत्र से अध्ययन समाप्त कर घर वापस आया तो उसका राजकीय सम्मान किया गया. सारा नगर पताकाओं और बन्दनवारों से सुसज्जित किया गया. रक्षित को हाथी पर बिठाया गया तथा लोगों ने उसका सत्कार किया. उसकी योग्यता पर प्रसन्न होकर लोगों ने उसे दास, पशु तथा स्वर्ण आदि द्रव्य दिया. विद्या के केन्द्र-वैदिक काल में प्रायः प्रत्येक विद्वान् गृहस्थ का घर विद्यालय होता था, क्योंकि गृहस्थ के पाँच यज्ञों में ब्रह्म-यज्ञ की पूर्ति के लिये गृहस्थ को अध्यापन कार्य करना आवश्यक था.५ जिन वनों, पर्वतों और उपनद प्रदेशों को लोगों ने स्वास्थ्य-संवर्धन के लिये उपयोगी माना वे स्थान आचार्यों ने अपने आश्रम और विद्यालयों के उपयोग के लिये चुने. महाभारत में कण्व, व्यास, भारद्वाज और परशुराम आदि के आश्रमों के वर्णन मिलते हैं. रामायण-कालीन चित्रकूट में वाल्मीकि का आश्रम था." जैन-संस्कृति की आचार्य परम्परा तीर्थङ्करों से प्रारम्भ होती है. तीर्थङ्कर प्रायः अनगार होते थे. अंतिम तीर्थङ्कर महावीर का दिगम्बर होना प्रसिद्ध है. ऐसे तीर्थङ्करों की शाला का भवनों में होना संभव नहीं था. उनके शिष्यसंघ आचार्यों के साथ ही, देश-देशान्तर में पर्यटन करते थे. महावीर के जो ग्यारह गणधर (शिष्य) थे वे सब आचार्य थे. उनमें इन्द्र भूति, वायुभूति, व्यक्त तथा सुधर्मा के प्रत्येक के ५०० शिष्य थे, मण्डिक तथा मौर्यपुत्र के प्रत्येक के ३५० शिष्य थे और अकम्पित, अचलभ्राता, मेतार्य तथा प्रभास के प्रत्येक के ३०० शिष्य थे. ये भ्रमण करते हुए संयोगवश महावीर से मिले तथा उनके व्यक्तित्व से प्रभावित होकर अपने शिष्यों सहित उनके संघ में सम्मिलित हो गये.८ । शनैः शनैः जैन मुनियों तथा आचार्यों के लिये गुफा-मन्दिर तथा तीर्थक्षेत्र के मन्दिर आदि बनने लगे. इसके बाद राजधानियों, तीर्थस्थान, आश्रम तथा मन्दिर शिक्षा के केन्द्र बने. राजा तथा जमींदार लोग विद्या के पोषक तथा संरक्षक थे. समृद्ध राज्यों की अनेक राजधानियाँ बड़े-बड़े विद्या के केन्द्रों के रूप में परिणत हुई. बनारस विद्या का विशाल केन्द्र था. संखपुर का राजकुमार अगडदत, वहां विद्याध्ययन के लिये गया था. वह अपने
१. उत्तराध्ययन, २६. २. आचारांग, सूत्र, २.५.१.१. ३. उत्तराध्ययन टीका, २ पृ० २२ अ०. ४. छान्दोग्य उपनिषद्, ८.१५.१.४.६.१. तथा २. २३.१. ५. "अध्यापनं ब्रह्मय १." मनुस्मृतिः, ३. ७०. ६. आदिपर्व, ७०. ७. रामायण, २.५.६.१६. ८. कल्पसूत्र 'लिस्ट आफ स्थविराज' 'श्रमण भगवान् महावीर' पृ०२११-२२०.
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