Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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२६२ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : तृतीय अध्याय
आचार्य के आश्रम में रहा और अपना अध्ययन समाप्त कर लौटा. सावत्थी (श्रावस्ती), एक अन्य विद्या का केन्द्र था. पाटलिपुत्र भी विद्या का केन्द्र था. 'रक्खिय' जब अपने नगर दशपुर में अध्ययन न कर सका तो वह उच्च शिक्षा के लिये, पाटलिपुत्र गया. 'प्रतिष्ठान' दक्षिण में विद्या का केन्द्र था. 'बलमी' शिक्षा केन्द्र के रूप में ख्याति की चरम सीमा पर था. यहीं पर जैन आगमों को संगृहीत करने के लिये नागार्जुनसूरि ने जैन-सन्तों की एक सभा बुलाई थी. साधुओं के निवास स्थान (वसति) तथा उपाश्रयों में भी विद्याध्ययन हुआ करता था. ऐसे स्थानों पर वे ही साधु अध्यापन के अधिकारी थे जिन्होंने उपाध्याय के समीप रहकर प्राचीन शास्त्रों के अध्यापन की शिक्षा प्राप्त की है.१ सत्य तथा ज्ञान के परीक्षण के लिये प्रायः वाद-विवाद हुआ करते थे. वाद-विवाद करने के लिये बड़े-बड़े संघ (वादपुरिसा) हुआ करते थे जहां जैन तथा अन्य साधु विशेषकर, बौद्ध साधु आकर सूक्ष्म-से-सूक्ष्म विषयों पर वादविवाद किया करते थे. यदि कोई व्यक्ति तर्क तथा न्याय में कमजोर पाया जाता था तो उसको किसी अन्य विद्या-केन्द्र में जाकर और अधिक अध्ययन के लिये प्रयत्न करना पड़ता था. वहां से अध्ययन समाप्त कर वह लौटता और अपने विरोधी को पराजित कर धर्म का प्रचार करता था.' ऊपर कही गई शिक्षण-पद्धति पर विचार करने के बाद हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि भारतवर्ष में प्राचीन काल में वैदिक तथा बौद्ध शिक्षण-पद्धति के समान एक सुव्यवस्थित जैन शिक्षण-पद्धति भी थी. आजकल भारत के बड़े-बड़े नगरों में जैनधर्म और जनदर्शन के अध्यापन के लिये जो प्रतिष्ठान चल रहे हैं उन पर पूर्ण रूप से इस प्राचीन जैन शिक्षण-पद्धती का प्रभाव दृष्टिगोचर होता है.
१. 'लाइफ इन एन्श्येन्ट इण्डिया' पृ० १७३-१७४. २. बृहत्कल्पभाध्य, ४. ५४.२५, ५४.२१.
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