Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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डा. हरीन्द्रभूषण जैन : प्राचीन भारत की जैन शिक्षण-पद्धति : १५७ लिये निम्नप्रकार विधान बताया गया है-"शिष्य को गुरुजनों की पीठ के पास अथवा आगे पीछे नहीं बैठना चाहिए. उसे गुरु के इतने पास भी नहीं बैठना चाहिए कि जिससे अपने पैरों का उनके पैरों से स्पर्श हो. शय्या पर लेटे-लेटे अथवा अपनी जगह पर बैठे-बैठे गुरु को कभी प्रत्युत्तर नहीं देना चाहिए. गुरुजनों के समक्ष पैर पर पैर चढ़ा कर, अथवा . घुटने छाती से लगाकर तथा पैर फैलाकर कभी नहीं बैठना चाहिए. यदि आचार्य बुलावे तो शिष्य को कभी भी मौन नहीं रहना चाहिए, प्रत्युत मुमुक्षु एवं गुरु-कृपेच्छु शिष्य को तत्काल ही उनके पास जाकर उपस्थित होना चाहिए. गुरु के आसन से जो आसन ऊंचा न हो तथा जो शब्द न करता हो, ऐसे स्थिर आसन पर शिष्य को बैठना चाहिए. आचार्य का कर्तव्य है कि ऐसे विनयी शिष्य को सूत्र और उनका भावार्थ उसकी योग्यता के अनुसार समझावे.' उत्तराध्ययन में गुरु तथा शिष्य के परस्पर संबंध पर भी प्रकाश डाला गया है : 'जैसे अच्छा घोड़ा चलाने में सारथि को आनन्द आता है वैसे चतुर साधक के लिये विद्यादान करने में गुरु को आनन्द आता है. और जिस तरह अड़ियल टट्ट को चलाते-चलाते सारथि थक जाता है वैसे ही मूर्ख शिष्य को शिक्षण देते-देते गुरु भी हतोत्साहित हो जाता है. पापदृष्टि वाला शिष्य, कल्याणकारी विद्या प्राप्त करते हुए भी गुरु की चपतों तथा भर्त्सनाओं को वध तथा आक्रोश (गाली) मानता है. सुशील शिष्य तो यह समझकर कि गुरु मुझको अपना पुत्र, लघुभ्राता अथवा स्वजन के समान मानकर ऐसा कर रहे हैं. यह गुरु की शिक्षा (दण्ड) को अपने लिये कल्याणकारी मानता है. पापदृष्टि रखने वाला शिष्य उस दशा में अपने को दास मानकर दु:खी होता है. कदाचित् आचार्य क्रुद्ध हो जाएँ तो शिष्य अपने प्रेम से उन्हें प्रसन्न करे, हाथ जोड़कर उनकी विनय करे तथा उनको विश्वास दिलावे कि वह भविष्य में वैसा अपराध कभी नहीं करेगा.२ योग्य छात्र वही था जो अपने आचार्य के उपदेशों पर पूर्ण ध्यान दे, प्रश्न करे, अर्थ समझे तथा तदनुसार आचरण करने का भी प्रयत्न करे. योग्य छात्र कभी भी गुरु की आज्ञा का उल्लंघन नहीं करते थे, गुरु से असद्व्यवहार नहीं करते थे और झूठ नहीं बोलते थे. अयोग्य विद्यार्थी भी हुआ करते थे. वे सदैव गुरु से हस्तताड़न अथवा पाद-ताड़न (खंडुया, चपेड़ा)प्राप्त किया करते थे. कभी वेत्रताड़न भी प्राप्त किया करते थे तथा बड़े कठोर शब्दों से संबोधित किए जाते थे. अयोग्य विद्यार्थियों की तुलना दुष्ट बलों से की गई है. वे गुरु की आज्ञा का पालन नहीं करते थे. कभी-कभी गुरु ऐसे छात्रों से थक कर उन्हें छोड़ भी देते थे. छात्रों की तुलना पर्वत, घड़ा, चालनी, छन्ना, राजहंस, भैंस, मेंढा, मच्छर, जोंक, बिल्ली, गाय, ढोल आदि पदार्थों से की गई है जो उनकी योग्यता और अयोग्यता की ओर संकेत करते हैं.५ शद्रों का विद्याधिकार-वैदिक काल में आर्येतर जातियों द्वारा, आर्यभाषा और आर्य-संस्कृति में निष्णात होकर वैदिक शिक्षा पर रोक प्रधानतः स्मृतिकाल में लगी. उनके लिए सदा से ही पुराणों के अध्ययन की सुविधा थी. जातक-काल में ऐसे अनेक शूद्र और चाण्डाल हो चुके हैं जो उच्चकोटि के दार्शनिक और विचारक थे.६ सुत्तनिपात के अनुसार मातंगनामक चाण्डाल तो इतना बड़ा आचार्य हो गया कि उसके यहां अध्ययन करने के लिए अनेक उच्चवर्ण के लोग आया करते थे. जन-संस्कृति में, चाण्डालों तक का दार्शनिक शिक्षा पाकर महर्षि बनना सम्भव था. उत्तराध्ययन में हरिकेशबल नामक
१. उत्तराध्ययन, १.१८-२३. २. वही, १.३७-४१. ३. आश्वयक नियुक्ति (२२) ४. उत्तराध्ययन. २७, ८, १३, १६. ५. आवश्यक नियुक्ति, १३६, आवश्यक चूर्णि पृ०१२१-१२५. बृहत्कल्पभाष्य, पृ० ३३४ . ६. सतुजातक, ३७७.
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