Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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१५६ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति ग्रन्थ : तृतीय अध्याय
है. 'कला' का अर्थ विद्या है. विद्या ग्रहण के पूर्व जो उत्सव मनाया जाता था उसे 'उपनयन' कहा गया है.' उपनयन के बाद माता-पिता अपने पुत्र को कलाचार्य (विद्यागुरु) के साथ भेज देते थे. प्रायः छात्र अपने आचार्यों के घर पर रहकर विद्याध्ययन किया करते थे. कुछ धनी लोग नगर में भी छात्रों को भोजन तथा निवास देकर उनके अध्ययन में सहायक होते थे.२ छात्र तथा आचार्यों के सम्बन्ध कभी-कभी वैवाहिक संबंधों के सुन्दर रूप में भी परिणत हो जाते थे. अवकाश के समय आश्रम बन्द हो जाते थे. अकाल-मेघों के आ जाने पर, गर्जन, बिजली का चमकना, अत्यधिक वर्षा, कोहरा, धूल के तूफान, चन्द्र-सूर्य-ग्रहण आदि के समय प्रायः अवकाश हो जाया करता था. दो सेनाओं अथवा दो नगरों में आपस में युद्ध द्वारा नगर की शान्ति भंग हो जाने पर, मल्लयुद्ध के समय तथा सम्मान्य नेता की मृत्यु हो जाने पर भी अध्ययन बन्द कर दिया जाता था. कभी-कभी बिल्ली द्वारा चुहे का मारा जाना, रास्ते में अण्डे का मिल जाना, जिस जगह आश्रम है उस मुहल्ले में बच्चे का जन्म होना आदि कारणों से भी विद्याध्ययन का कार्य बन्द कर दिया जाता था. अध्ययन-काल-वैदिक युग में ब्रह्मचर्याश्रम का प्रारम्भ १२ वर्ष की अवस्था में होता था. १२ वर्ष की अवस्था से लेकर जब तक वेदों का अध्ययन चलता रहता था तब तक विद्यार्थी पढ़ते रहते थे. बौद्ध संस्कृति में भी कोई गृहस्थ अपने कुटुम्ब का परित्याग करके (किसी भी अवस्था का होने पर भी) बुद्धसंघ और बुद्ध की शरण में जाकर विद्याध्ययन में लग सकता था. शास्त्र के अनुसार बालक का अध्ययन कुछ अधिक आठ वर्ष से प्रारम्भ होता था और जब तक वह कलाचार्य के निकट सम्पूर्ण ७२ कलाओं का अथवा कुछ कलाओं का अध्ययन नहीं कर लेता था तब तक अध्ययन करता रहता था.५ विद्या के अधिकारी-वैदिक काल में जिन विद्यार्थियों की अभिरुचि अध्ययन के प्रति होती थी, आचार्य प्रायः उन्हीं को अपनाते थे. जिन विद्यार्थियों की प्रतिभा, ज्ञान प्राप्त करने में असमर्थ होती थी उन्हें फाल और हल या ताने-बाने के काम में लगना पड़ता था. जैनाचार्यों ने विद्यार्थी की योग्यता के लिये उसका आचार्य-कुल में रहना, उत्साही, विद्याप्रेमी, मधुरभाषी तथा शुभकर्मा होना आवश्यक बतलाया है. आज्ञा उल्लंघन करने वाले, गुरुजनों के हृदय से दूर रहने वाले, शत्रु की तरह विरोधी तथा विवेकहीन शिष्य को 'अविनीत' कहा गया है. इसके विपरीत जो शिष्य गुरु की आज्ञा पालन करने वाला है, गुरु के निकट रहता (अन्तेवासी) है, तथा अपने गुरु के इंगित-मनोभाव तथा आकार का जानकार है उसे 'विनीत' कहा गया है.६ शिष्य के लिये वाचाल, दुराचारी, क्रोधी, हंसी-मजाक करने वाला, कठोर वचन बोलने वाला, विना सोचे उत्तर देने वाला, पूछने पर असत्य उत्तर देने वाला, गुरुजनों से वैर करने वाला नहीं होना चाहिए.१० उत्तराध्ययन में शिष्य के
१. भगवती सूत्र, ११, ११, ४२६ पृ० ११8-अभयदेव वृत्ति. २. उत्तराध्ययन टोका, ८, पृ० १२४. ३. वही, १८, पृ० २४३. ४. व्यवहारभाध्य, ७. २८१-३१६. ५. नायाधम्मकहाओ,१,२०.पृ०२१. ६. छान्दोग्य उपनिषद् , ६.१.२. ७. उत्तराध्ययन, ११.१४. ८. वही, 8. वही, १.२. १०. वही, १.४,६,१३, १४, १७.
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