Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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Jain Ede
५४४ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति ग्रन्थ : तृतीय अध्याय
१. केवली अथवा पूर्णज्ञानी साधुओं की संख्या ७०० की थी और इनका दर्जा सर्वश्रेष्ठ था. ये भगवान् महावीर के मुकाबले के ज्ञानी थे. महावीर ने इनकी पूर्ण स्वतंत्रता को स्वीकार किया था. ये आत्मध्यान करने के उपरान्त धर्मोपदेश भी देते थे.
२. दूसरे दर्जे के साधु 'मनः पर्यवज्ञानी' याने मनोवैज्ञानिक थे. ये चित्तवृत्ति वाले प्राणियों के मानसिक भावों के ज्ञाता होते थे.
३. अवधिज्ञानी - अथवा, मर्यादित ज्ञानी साधु १३०० थे.
४. चतुर्दशपूर्वी सम्पूर्ण अक्षरज्ञान के पारंगत होते थे और शिष्यों को शास्त्राध्ययन कराते थे.
५. वैक्रियद्धिक अथवा योगसिद्धि प्राप्त ७०० साधु थे जो प्रायः तपश्चर्या और ध्यान में मग्न रहते थे.
६. वादी अथवा तर्क और दार्शनिक सिद्धान्तों की चर्चा करने वाले ४०० साधु थे, जो अन्य तीर्थिकों के साथ चर्चा व शास्त्रार्थ में उतरते और जैनदर्शन के ऊपर होने वाले आक्रमणों का उत्तर देते थे.
७. इस विभाग में शेष तमाम साधु थे, जो विद्याध्ययन, तपस्या, ध्यान और विशिष्ट साधुओं की सेवा-चाकरी करते थे. इस प्रकार महावीर का श्रमणसंघ योग्यता की दृष्टि से और व्यवस्था-पद्धति के अनुसार भिन्न-भिन्न विभागों में विभक्त हो जाने से उनकी व्यवस्था-पद्धति बड़ी सुगम हो गयी थी. यही कारण है कि महावीर के जीवनकाल में १४०० जितना विशाल श्रमणसंघ एकाज्ञाधीन था. ३० वर्ष के अन्दर सिर्फ दो साधु इस विशाल समुदाय में से महावीर के सिद्धान्तविशेष के सम्बन्ध में विरुद्ध हुए थे जो 'जमाली' और 'तिष्यगुप्त' इन नामों से जैनशास्त्र में प्रसिद्ध हैं. ये दोनों ही महावीर के श्रमण संघ से बाहर किये गये थे.
भगवान् महावीर करीब ३० वर्ष तक धर्म प्रचार करके ७२ वर्ष की अवस्था में निर्वाण प्राप्त हुए थे. इनके ११ गणघरों में से गणधर इनसे पहले ही मुक्ति-लाभ कर चुके थे. गणधरों में सिर्फ 'इन्द्रभूति गौतम' और 'अग्निवंश्यायन
सुधर्मा ये दो ही जीवित थे. इनमें से इन्द्रभूति गौतम को महावीर का निर्वाण हुआ, उसी रात्रि के अंत में केवल ज्ञान हो जाने से वे निवृत्ति परायण हो गये थे. इस कारण महावीर के निर्वाण के बाद सम्पूर्ण श्रमण संघ के 'प्रमुख' सुधर्मा गणधर बने थे.
यद्यपि महावीर के जीवनकाल में 'जैन शासन' एकच्छत्र राज्य के ढंग पर ही चलता था, पर उनके निर्वाण के बाद वह स्थिति नहीं रही.
महावीर के निर्वाण के अनन्तर जैन ' स्थविरसत्ताक' या 'युगप्रधान सत्ताक' कराएँगे.
श्रमणसंघ की व्यवस्था के लिए एक 'नवीन शासन पद्धति' स्थापित हुई थी जिसे शासन पद्धति कह सकते हैं. प्रस्तुत लेख में हम इसी शासनपद्धति का दिग्दर्शन
परिभाषा - शासन पद्धति का दिग्दर्शन कराने से पहले हम इसके कतिपय अधिकारियों की और उनके अधिकारों की परिभाषायें समझाएंगे. क्योंकि इस शासन के अधिकारी संघ स्थविर-युगप्रधान आचार्य, उपाध्याय, गणि, प्रवर्तक, गणावच्छेदक, स्थविर इत्यादि नामों से प्रसिद्ध हैं, और इनके अधिकार पद संघ, गण, कुल आदि भी सुप्रसिद्ध हैं पर इन सबकी परिभाषा क्या है, यह बहुत कम लोग जानते होंगे और जब तक इनको परिभाषायें जाती नहीं गई तब तक इन अधिकारियों से बनी हुई शासन पद्धति को समझना कठिन है.
१. कुल – एक आचार्य का शिष्य परिवार श्रमणपरिभाषा में 'कुल' इस नाम से निर्दिष्ट होता था. इस प्राचीन कुल को आधुनिक जैन परिभाषा में 'संघाडा" कह सकते हैं.
१. 'संघाटक' शब्द का अपभ्रंश 'संघाडा' है, 'संवादक' का अर्थ जैन सूत्रों की परिभाषानुसार दो (युग्म) होता है परन्तु आधुनिक जैन भाषा में एक आचार्य की शिष्य परम्परा को भी 'संघाडा' कह दिया करते हैं.
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