Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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डॉ. मंगलदेव शास्त्री : भारतीय संस्कृति का वास्तविक दृष्टिकोण : ५३५ आज की असाम्प्रदायिक भारत सरकार के विरुद्ध सम्प्रदाय-वादियों का आन्दोलन उसके सामने कुछ भी नहीं है. भगवान् मनु ने अपनी मनुस्मृति में जैन जैसे सम्प्रदायों को नास्तिक ही नहीं कहा है, उनके धर्मग्रंथों को भी 'कुदृष्टि' 'तमोनिष्ठ' (अज्ञानमूलक) और 'निष्फल' कहा है.'
हस्तिना ताड्यमानोऽपि न गच्छेज्जैनमन्दिरम् । (अर्थात् मदमत्त हाथी से पीछा किये जाने पर भी, जैन-मन्दिर में न जाए) ऐसे वचनों से और दक्षिण भारत में पूर्वमध्य काल में अनेकानेक जैन-बौद्ध मन्दिरों को बलात् छीन कर पौराणिक मन्दिरों का रूप देने में भी सांप्रदायिक विद्वेष और अत्याचार के ही निदर्शन हमारे सामने आते हैं. इसके अतिरिक्त, नीचे लिखे उद्धरणों को भी देखिए :
त्रयो वेदस्य कर्तारो भण्डधूर्तनिशाचराः । (वेदों के बनाने वाले भांड, धूर्त और निशाचर ये तीन थे),
धिग् धिक् कपालं भस्मरुदाक्षविहीनम् । तं त्यजेदन्त्यं यथा । (भस्म और रुद्राक्ष से जिसका कपाल विहीन है उसका अन्त्यज के समान दूर से ही परित्याग कर दे),
भववतधरा ये च ये च तान् समनुव्रताः ।
पाषण्डिनस्ते भवन्तु सच्छास्त्रपरिपन्थिनः। -भागवत ४.२.२८. (अर्थात्, शैवधर्म के अनुयायी वास्तव में पाखण्डी और सच्छास्त्र के विरोधी हैं.)
यथा श्मशान काष्ठं सर्वकर्मसु गर्हितम् ।
तथा चक्राङ्कितो विप्रः सर्वकर्मसु गर्हितः । (अर्थात् श्मशान के काष्ठ के समान ही चक्रांकित वैष्णव का सब कर्मों से बहिष्कार करना चाहिए. ) इसी प्रकार हमारे अनेक धार्मिक ग्रंथ, शैव, वैष्णव, जैन, बौद्ध आदि संप्रदायों के परस्पर विद्वेष के भावों से भरे पड़े है. इस साम्प्रदायिक विद्वेष भावना ने हमारे दार्शनिक ग्रन्थों पर भी कहां तक अवांछनीय प्रभाव डाला है, इसका अच्छा नमूना हमको 'माध्वमुखभंग' 'माध्वमुखचपेटिक' दुर्जन-करि-पंचानन' जैसे ग्रन्थों के नामों से ही मिल जाता है. इन नामों में विद्वज्जन सुलभ शालीनता का कितना अभाव है. यह कहने की बात नहीं है. दर्शनशास्त्र का विषय ऐसा है जिसका प्रारम्भ ही वास्तव में साम्प्रदायिकता की संकीर्ण भावना की सीमा की समाप्ति पर होना चाहिए. इसलिए दार्शनिक क्षेत्र में विभिन्न संप्रदायों के लोग संकीर्णता से ऊपर उठ कर, सद्भावना और सौहार्द के स्वच्छ वातावरण में एकत्र सम्मिलित हो सकते हैं. परन्तु भारतवर्ष में दार्शनिक साहित्य का विकास प्रायेण सांप्रदायिक संघर्ष के वातावरण में ही हुआ था. इसलिए उनउन सम्प्रदायों से संपृक्त विभिन्न दर्शनों के साहित्य से भी प्रायः सांप्रदायिकता को प्रोत्साहन मिलता रहा है. न्याय-वैशेषिक दर्शनों का विकास शैव सम्प्रदाय से हुआ है. योग की परम्परा का भी झुकाव शैव सम्प्रदाय की ओर अधिक है. रहे पूर्व-मीमांसा, वेदान्त, बौद्ध और जैन-दर्शन-इनका तो स्पष्टतया घनिष्ठ सम्बन्ध वैदिक, वैष्णव, बौद्ध और जैन-सम्प्रदायों से ही रहा है. एक सांख्य-दर्शन ऐसा है जिसकी दृष्टि प्रारम्भ से ही विशुद्ध दार्शनिक रही है. पर इसीलिए उसे वेदान्तसूत्र-शांकरभाष्य' आदि में अवैदिक कह कर तिरस्कृत किया गया है.
१. देखिए-'या वेदह्याः स्मृतयो याश्च काश्च कुदृष्टयः । सर्वास्ता निष्फलाः प्रेत्य तमोनिष्ठा हि ताः स्मृताः'-मनुस्मृति १२.९५. २. इस विषय में राजशेखरसूरिकृत षड्दर्शन-समुच्चय, तथा हरिभद्रसूरिकृत षड्दर्शन-समुच्चय को भी देखिए. ३. देखिए 'न तया श्रुतिविरुद्धमपि कापिलं मतं श्रद्धातु शक्यम्'-वेदान्तसूत्रशांकरभाष्य २.१.१.
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