Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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५२४ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति ग्रन्थ : द्वितीय अध्याय श्रद्धासमन्वित बुद्धि ही उस आत्मतन्त्र तक पहुँच सकती है. अलौकिक परिपूर्ण मानव ही मनुष्य जाति का युग-युगों में आदर्श रहा है. गीता में इसी मानव को लक्ष्य करके 'पुरुषोत्तम' कहा है. इसे ही अंग्रेजी में 'सुपरमैन' करते हैं. प्रकृत मानव और महामानव का जो अन्तर है, वही मैन और सुपरमैन का है. वेदव्यास ने जो:
नहि मानुषाच्छष्ठतरं हि किंचित्. इस लोकोत्तर सत्य का उद्घोष किया है, वह उसी महामानव, अति-मानव या लोकत्तरमानव के लिये है, न कि सर्वात्मना दीन-हीन और अशक्त बने हुए निर्बल मानव के लिये, जो परिस्थितियों के थपेड़ों से पराभूत होता हुआ इधरउधर लक्ष्यहीन कर्म करता रहता है. इस प्रकार का जो बापुरा मनुष्य है वह तो शोक का विषय है. वस्तुतः मानव का उद्देश्य तो अपने उस स्वरूप की प्राप्ति है जिसमें विश्व का वैभव या समृद्धयानन्द और आत्मा का सहज स्वाभाविक उत्कर्ष या शान्त्यानन्द दोनों एक साथ समन्वित हुए हों. जो मानव इस प्रकार की स्थिति इसी जन्म में यहीं रहते हुए प्राप्त करता है, वही सफल श्रेष्ठतम मानव है. महाभारत के समस्त पात्रों में दो प्रकार के चरित स्पष्ट लक्षित होते हैं. एक वे हैं जो स्थिर धृति और दृढ़ निष्ठा से कभी च्युत नहीं होते और सदा दूसरों का उद्बोधन करते हुए देखे जाते हैं. दूसरे वे हैं जो भावुक हैं और बार-बार उद्बोधन प्राप्त करने पर भी जो उसे विस्मृत कर देते हैं और असत् कर्म में प्रवृत्त होते हैं, या निष्ठा से विपरीत केवल भावुकतापूर्ण कर्म करते हैं. पहली कोटि के पात्रों में केवल चार की गिनती हैं—कृष्ण, व्यास, भीष्म और विदुर. उनके अतिरिक्त युधिष्ठिर, अर्जुन आदि धर्मपथ के पथिक भी अपनी भावुकता के कारण विषमभाव को प्राप्त हो जाते हैं और कर्तव्य-अकर्तव्य के ज्ञान से कुछ समय के लिये शून्य या विचलित हो जाते हैं. इनके अतिरिक्त दुर्योधन, दुःशासन, शकुनि, कर्ण-जैसे मानव तो एकदम असत् निष्ठा के लिये कर्म कर रहे थे. उनका तो अन्त में विनाश निश्चित ही था. महाभारत जैसी लोकोत्तर धर्म-संहिता का लक्ष्य दुर्योधन कर्ण आदि पात्र नहीं हैं, क्योंकि वे अपने दुष्ट आग्रह को किसी भांति त्याग नहीं सकते थे, महाभारत के लिये समस्यारूप में तो युधिष्ठिर और अर्जुन हैं, जो धर्मपथ पर आरूढ़ होते हुए भी और धर्मपरायण निष्ठा रखते हुए भी बार-बार कर्तव्यपथ से च्युत होते हैं और विषम निष्ठा को प्राप्त हो जाते हैं और अपने ध्येय को भूल कर कुछ कर कुछ करने के लिये उतारू हो जाते हैं. कहाँ तो एक ओर अन्याय का प्रतिकार करने के लिये अर्जुन का युद्ध के लिये कृष्ण को सारथी बनाकर रणभूमि में जाना, कहाँ दूसरी ओर क्षणभर में ही युद्ध न करने के लिये भारी अवसाद को प्राप्त हो जाना. ऐसे ही युधिष्ठिर भी कई अवसरों पर आत्महत्या के लिये या सब-कुछ छोड़ कर वैराग्य-धारण करने के लिये तैयार हो जाते हैं. जिस व्यक्ति की निष्ठा ठीक है, जिसका आत्मकेन्द्र अविचलित है वह इस प्रकार की धर्मभीरु बातें नहीं कहेगा, जैसी अर्जुन या युधिष्ठिर ने कहीं; जो ऊपर से देखने में तो तर्कसंगत और पण्डिताऊ जान पड़ती हैं, किन्तु जो आत्मनिष्ठ सत्य-धर्म की दृष्टि से नितान्त विरुद्ध हैं. जिसे महामानव या अतिमानव या पुरुषोत्तम या लोकोत्तर मानव कहा गया है, जो व्यक्ति समाज, राष्ट्र और समस्त मानवजाति की दृष्टि से हमारा आदर्श है, उस श्रेष्ठ मानव का इस विश्व में सच्चा स्वरूप क्या है ? उसका निर्माण कैसे हुआ है ? विराट् विश्व के कौन-कौन से तत्त्व उसके निर्माण में समाविष्ट हुए हैं ? उसका केन्द्र और उसकी महिमा क्या है ? विश्वात्मा षोडशी प्रजापति और केन्द्र प्रजापति का क्या सम्बन्ध है ? । कहने के लिये तो मानव का निर्माण छोटी सी बात है, किन्तु जैसा पहले कहा जा चुका है यह मानव सहस्र प्रजापति की प्रतिमा है. अतएव मानव के स्वरूप का यथार्थज्ञान विश्वस्वरूप की मीमांसा के विना अयवा सहस्रात्मा प्रजापति के स्वरूपपरिचय के विना सम्भव नहीं है. सृष्टि के आदि से सृष्टि के अन्त तक विश्व की कोई प्रक्रिया ऐसी नहीं है जिसका प्रतिबिम्ब मानव में न हो. संक्षेप में इसका सूत्र यह है कि जो षोडशी प्रजापति है वही मानव के केन्द्र में बैठा हुआ मनुप्रजापति या आत्मबीज है. षोडशी प्रजापति को ही त्रिपुरुष-पुरुष भी कहते हैं. अव्यय, अक्षर और क्षर ये ही सृष्टि के आधारभूत तीन पुरुष हैं, और चौथा इन तीनों से परे रहने वाला परात्पर पुरुष कहलाता है, जो
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