Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
View full book text
________________
---0-0-0-0-0-0-0--0-0
५२८ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : द्वितीय अध्याय जैसे ज्वलन्त शक्ति केन्द्रों का पुनः निर्माण हो सके ? एक बार शक्ति का विलय हो जाने पर इसकी पुनः प्रवृत्ति का क्या कोई हेतु और सम्भावना है ? इत्यादि प्रश्न विज्ञान के संप्रश्न हैं जिनका संकेत मानव का आह्वान उस ओर निश्चित रूप से कर रहा है, जो विश्व का मूल कारण है और जिसके विषय में सबसे बड़ा रहस्य यह है कि वह इस विश्व से बाहर रहता हुआ भी इसकी रचना करके इसी में समाया हुआ है.
'तत्सृष्ट्वा तदेवानुप्राविशत'. वैज्ञानिकों के सामने सुमेरु के समान दुघर्ष सृष्टि का संप्रश्न बना हुआ है, जैसा मनीषिप्रवर मांरिस मेटरलिक ने कहा है 'सत्य तो यह है कि इतना अनुसन्धान और बौद्धिक मन्थन हो जाने के बाद भी अभी विश्व-मानव उस स्थिति में नहीं पहुँचा पाया है जहाँ एक भी परमाणु, एक भी घटक कोष या एक भी मानस का पूरा रहस् यया उसकी प्रक्रियाओं का पूरा भेद हमें मिल पाया हो. अभी तक चारों ओर रहस्य ही रहस्य भरा हुआ है, किन्तु मानव प्रजापति का नेदिष्ठ रूप है. उसे तत्त्व की प्राप्ति के विना सन्तोष नहीं हो सकता. शक्ति के स्वरूप और जीवन के स्रोत एवं मन के स्वरूप को जान कर ही मानव के प्रश्न का समाधान हो सकेगा. कहा जाता है कि विश्ववैज्ञानिक आइन्स्टाइन अपने जीवन के अन्तिम क्षणों में विश्व की गूढ़ पहेली को समझने में अतिव्यस्त थे और उनके दृष्टिपथ में यह सत्य आने लगा था कि देश और काल के अतिरिक्त भी कोई शक्ति है जो सृष्टिप्रक्रिया में अनिवार्य अंग के समान कार्य कर रही है और उसकी सत्ता को भी सम्भवतः गणित की उपपत्तियों द्वारा व्यक्त करना सम्भव होगा. यह भविष्य के प्रश्न हैं जिनके विषय में अधिक ऊहापोह सम्भव नहीं, किन्तु गैदिक विज्ञान की जो सामग्री हमारे सामने है उसका जब बुद्धिगम्य विवेचन हम देखते हैं, तो यह ध्रुव रूप निश्चित हो जाता है कि उस किसी सत् चित् आनन्द तत्त्व ने अपने त्रिवृत् स्वरूप द्वारा इस सर्ग का वितान किया है और वह स्वयं इसमें गूढ़ है, वही अव्यक्त से व्यक्त भाव में आया है, साथ ही समझने वालों को इसका भी आभास स्पष्ट मिलता है कि वैदिक-विज्ञान और अर्वाचीन विज्ञान इन दोनों की शब्दावली और परिभाषाओं में चाहे जितना भेद हो, मूलतत्त्व की व्याख्या में बहुत कुछ सादृश्य है. ऊपर कही हुई पंचाण्ड-विद्या उसका एक छोटा-सा उदाहरण है. जन्म वृद्धि और ह्रास की मौलिक प्रक्रिया जो विज्ञान और दर्शन में समानरूप से मान्य है वही पंचाण्डविद्या का विषय है. जिसे अंग्रेजी में औवल या आयतवृत्त कहते हैं, वही अण्ड है. एक अविशेष केन्द्र से तीन विशिष्ट केन्द्रों का विकास यही सृष्टि है. त्रिकभाव का नाम ही विश्व है. 'विवृद् दा इदं सर्वम्' यह वेद की परिभाषा विज्ञान को भी मान्य है. इसी त्रिवृत् भाव की संज्ञा मनु, प्राण, वाक् है जिसकी बहुत प्रकार की व्याख्या नैदिकसाहित्य में पाई जाती है. उस व्याख्या के भिन्न-भिन्न स्तर हैं. जैसे इस सृष्टि के विभिन्न क्षेत्र या स्तर हैं. यह बात भी स्मरण रखनी चाहिए कि विज्ञान के नियम के समान ही मूलभूत नैदिक नियम भी अत्यन्त सरल हैं. अध्यात्म, अधिदैवत्त और अधिभूत के स्तरों पर उन नियमों को समझने का प्रयत्न ब्राह्मण ग्रन्थों में पाया जाता है. वैदिक विज्ञान का एक कठिन पक्ष भी है, वैदिक विज्ञान एक सूत्र या तन्तु नहीं, पूरा पट है. एक तन्तु को पकड़ते ही पूरे पट को सम्हालने का साहस यदि बुद्धि में न हो तो बुद्धि कातर हो जाती है और दिङ्मूढ़ स्थिति में पड़ जाती है. किस दशा में कहां गति की जाय यह स्पष्ट दिखाई नहीं पड़ता, किन्तु यह ऐसी कठिनाई नहीं है जिसका परिहार न हो सके. यह तो सृष्टि की ही विचित्रता है, उसमें सब कुछ ओतप्रोत है. एक सामान्यातिसामान्य अंकुर समस्त विश्व का प्रतीक बना हुआ है. उसका कृत्स्न ज्ञान कोई प्राप्त करना चाहे तो उसे एक ओर समस्त विज्ञान को और दूसरी ओर दर्शन के ज्ञान को मथना होगा. ज्ञान और विज्ञान को आत्मसात् करके ही अन्तिम तत्त्व का दर्शन किया जा सकता है. ज्ञान शिरोमूला दृष्टि है और विज्ञान पादमूला दृष्टि है. बट में बीज का दर्शन और बीज में बट का दर्शन ये दोनों ही ज्ञानसाधन के प्रकार हैं.
Jain Education Intemational
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org