Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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डा० इन्द्रचन्द्र शास्त्री : श्रावकधर्म : १०१
प्रकार का दोष ध्यान में आने पर प्रायश्चित्त करता है और भविष्य में उनके निर्दोष पालन की घोषणा करता है. इन सम्भावित दोषों को अतिचार कहा गया है. जैन शास्त्रों में व्रत के अतिक्रमण की चार कोटियां बताई गई हैं : १. अतिक्रम-व्रत को उल्लंघन करने का मन में ज्ञात या अज्ञात रूप से विचार आना. २. व्यतिक्रम-उल्लंघन करने के लिये प्रवृत्ति. ३. अतिचार-व्रत का आंशिक रूप में उल्लंघन. ४, अनाचार-व्रत का पूर्णतया टूट जाना. अतिचार की सीमा वहीं तक है जब कोई दोष अनजान में लग जाता है, जान-बूझ कर व्रतभंग करने पर अनाचार हो जाता है.
हिसा-त्रत अहिंसा जैन-परम्परा का मूल है. जैनधर्म और दर्शन का समस्त विकास इसी मूल तत्त्व को लेकर हुआ है. आचारांग सूत्र में भगवान् महावीर ने घोषणा की है कि जो अरिहन्त भूतकाल में हो चुके हैं, जो वर्तमान में हैं तथा जो भविष्य में होंगे उन सबका एक ही कथन है, एक ही उपदेश, एक ही प्रतिपादन है तथा एक ही उद्घोष है कि विश्व में जितने प्राणि, भूत, जीव या सत्त्व हैं किसी को नहीं मारना चाहिए, किसी को नहीं सताना चाहिए. किसी को कष्ट या पीड़ा नहीं देनी चाहिए. जीवन के इस सिद्धान्त का प्रतिपादन समता के आधार पर करते हुए उन्होंने कहा- जब तुम किसी को मारना, सताना या पीड़ा देना चाहते हो तो उसके स्थान पर अपने को रखकर सोचो, जिस प्रकार यदि कोई तुम्हें मारे या कष्ट देवे तो अच्छा नहीं लगता. इसी सूत्र में भगवान् ने फिर कहा है-अरे मानव, अपने आपसे युद्ध कर, बाह्य युद्धों से कोई लाभ नहीं. इस प्रकार भगवान् महावीर ने अहिंसा के दो रूप उपस्थित किये. एक बाह्य रूप जिसका अर्थ है किसी प्राणी को कष्ट न देना. दूसरा आभ्यन्तर रूप है जिसका अर्थ है किसी के प्रति दुर्भावना न रखना, किसी का बुरा न सोचना. दशवकालिक सूत्र में धर्म को उत्कृष्ट मंगल बताया है. इसका अर्थ है जो आदि, मध्य तथा अंत, तीनों अवस्थाओं में मंगल रूप हो वही धर्म है उसके तीन अंग बताए गए हैं—१. अहिंसा, २. संयम, ३. तप. वास्तव में देखा जाय तो संयम और तप अहिंसा के दो पहलू हैं. संयम का सम्बन्ध बाह्य प्रवृत्तियों के साथ है और तप का आन्तरिक मलिनताओं या कुसंस्कारों के साथ. उपर्युक्त अणुव्रतों तथा शिक्षाव्रतों का विभाजन इन्हीं दो रूपों को सामने रखकर किया गया है. संयम और तप की पूर्णता के रूप में ही मुनियों के लिये एक ओर महाव्रत तथा समिति, गुप्ति आदि उनकी सहायक क्रियाओं का विधान है और दूसरी ओर बाह्य तथा आभ्यन्तर अनेक प्रकार की तपस्याओं का विधान है. पांच महावतों में भी वस्तुतः देखा जाय तो सत्य और अस्तेय, बाह्य अहिंसा अर्थात् व्यवहार के साथ सम्बन्ध रखते हैं, ब्रह्मचर्य तथा अपरिग्रह आन्तरिक अहिंसा अर्थात् विचार के साथ सम्बन्ध रखते हैं. व्यास ने पातञ्जल योग के भाष्य में कहा है...."अहिंसा भूतानामनभिद्रोहः." द्रोह का अर्थ है ईर्ष्या या द्वेष बुद्धि. इसमें मुख्यतया विचारपक्ष को सामने रक्खा गया है, जैन-दर्शन विचार और व्यवहार दोनों पर बल देता है. जैन-दर्शन का सर्वस्व स्याद्वाद है. वह विचारों की अहिंसा है. इसका अर्थ है व्यक्ति अपने विचारों को जितना महत्त्व देता है दूसरों के विचारों को भी उतना दे. गलत सिद्ध होने पर अपने विचारों को छोड़ने पर तैयार रहे और वास्तविक सिद्ध होने पर दूसरे के विचारों का स्वागत करे. जैन-दर्शन का कथन है कि व्यक्ति अपनी-अपनी परिस्थिति के अनुसार विभिन्न दृष्टिकोणों को उपस्थित करते हैं. वे दृष्णिकोण मिथ्या नहीं होते किन्तु सापेक्ष होते हैं. परिस्थिति तथा समय के अनुसार उनमें से किसी एक का चुनाव किया जाता है. इस चुनाव को द्रव्य, क्षेत्र, काल तथा भाव इन शब्दों द्वारा प्रकट किया गया है.
SANSAR
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