Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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३०६ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति ग्रन्थ : द्वितीय श्रध्याय
विविक्तशय्यासन
साधना में स्थान का भी महत्त्व है. वह ऐसे स्थान में रहे जहाँ का वातावरण और परिस्थिति साधना के लिये अनुकूल हो. इसलिये उसका एकान्त, निरुपाधिक स्थान में रहना आवश्यक है. इसलिये तप में विविक्त शय्यासन का स्थान है. कायक्लेश
सर्दी-गर्मी के उपद्रव साधना में बाधक न हों और सदा अप्रमत्त अवस्था बनी रहे, इस दृष्टि से शरीर को सहनशील बनाना आवश्यक है. नहीं तो वैसे प्रसंग आने पर साधक विचलित हो जाता है. सदा स्फूर्ति रहे और प्रतिकूल परिस्थिति का मन पर असर न हो, इसलिये आसनादि द्वारा शरीर को कष्टसहन के योग्य बनाने की आवश्यकता है. इस तप का
यही उद्देश्य है.
आभ्यन्तर तप :
प्रायश्चित्त
शारीरिक बाह्य तपों की अपेक्षा साधनामार्ग में मानसिक तपों का अधिक महत्त्व है. जीवनशुद्धि तथा आत्मविकास की दृष्टि से सभी धर्मों में मानसिक अभ्यास पर जोर दिया गया है. साधक जब साधना क्षेत्र में आगे बढ़ता है तब आत्म-आलोचना कर अपनी प्रत्येक शारीरिक क्रिया और मानसिक वृत्ति का शोधन करता है. जब उसे अपने द्वारा हुई भूल मालूम देती है तो प्रायश्चित्त कर फिरसे वह भूल न हो इसका संकल्प करता है. वैसे तो प्रायश्चित्त का श्रमणपरम्परा में महत्त्व था पर भ० महावीर ने उसे दैनिक कार्यक्रम में जोड़ दिया. उनके पहले २२ तीर्थंकरों की परम्परा में भूल हो तब प्रायश्चित्त लेने का विधान था, पर भगवान् महावीर ने मनुष्य स्वभाव की दुर्बलता को जानकर इसमें यह परिवर्तन किया कि मनुष्य सावधान होकर अपने दैनिक कार्यों का निरीक्षण करे. जान या अनजान में होने वाली भूलों की आलोचना कर वैसी भूलें फिरसे न हों, इसके लिये संकल्प करे. आत्मविकास के लिये व्रतों में कहीं दोष आ जाय, व्रतभंग हो जाय, संकल्पों में ढिलाई आवे तो उसका स्मरण कर आलोचना और प्रायश्चित्त साधक को आगे बढ़ाता है. वह अपने मन, वचन और शरीर से होनेवाले दोषों के लिए जो कुछ करना आवश्यक हो वह करता है.
विनय
साधना में विनय का अत्यन्त महत्त्व होने से आभ्यन्तर तप में अनुभवियों ने उसे भी स्थान दिया है. अहंकार मनुष्य को नीचे गिराता है और विनय साधना में सहायक होता है. अहंकार ज्ञानियों, अनुभवियों तथा गुरु से ज्ञान व अनुभव प्राप्त करने में बाधक बनता है. जब साधक अपने आपको पंडित या ज्ञानी मान लेता है, मुझे सब कुछ मालूम है, ऐसा समझता है, तब उसका विकास रुक जाता है. साधक को हमेशा जिज्ञासु और विद्यार्थी रहना चाहिये, गुणियों के प्रति आदर भाव रखना चाहिये. जाति, कुल और उम्र से कोई श्रेष्ठ नहीं बनता पर गुणों से ही श्रेष्ठ और पूज्य बनता है. इसलिये ज्ञान, दर्शन और चारित्र के विनय भी बताये गये हैं. सतत ज्ञानप्राप्ति का अभ्यास और स्मरण को ज्ञानविनय कहा है, वैसे ही ज्ञानियों के प्रति आदर भी ज्ञान का विनय है.
जब तक सिद्धान्त या तत्त्व के प्रति दृढ़ निष्ठा नहीं होती तब तक साधना-पथ में आगे नहीं बढ़ा जा जकता. इसलिये यथार्थं तत्त्व को जानना और उसके प्रति दृढ़ निष्ठा होना आवश्यक है. यदि शंका हो तो ज्ञानियों और गुरु से शंकानिवारण कर लेना चाहिये. यह दर्शन एवं ज्ञान विनय है. ज्ञान से तत्त्व का ठीक निर्णय हो जाय तब तदनुकूल आचरण या अभ्यास करना चारित्रविनय है.
साधक सदा नम्र होता है, उसे अपनी अपूर्णता का ध्यान होता है. वह अपने से वृद्ध तथा अनुभवियों के प्रति सदा विनयी होता है, जिसे जैन साधना में उपचार विनय कहा गया है. विनय को मोक्ष का मूल माना गया है.
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