Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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४१६ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : द्वितीय अध्याय सामर्थ्य, विवेक, रचना, जन्म और अर्थक्रियाकारितादि की हेतुता से महासत्ता, महाचिति, महाशक्ति, महादृष्टि, महाक्रिया, महाउद्भव और महास्पन्द, गति इत्यादि नामों से कही गई है. तृणों के समान सब जगत् का परिवर्तन करती हुईदैत्य इस प्रकार के क्रूर हैं, देवता इस प्रकार शान्त हैं, नाग ऐसे हैं, पर्वत ऐसे जड़ हैं इत्यादि रूप से कल्पपर्यन्त नियति अपने रूप में स्थित रहती है.
न शक्यते लंधयितुमपि रुद्रादिबुद्धिभः। -३,६२,२. सर्वज्ञोऽपि बहुज्ञोऽपि माधवोऽपि, हरोऽपि च । अन्यथा नियति कतुन शक्तः कश्चिदेव हि। -५,८६,२६. सर्गादौ या यथारूढा संविक्तचनसंततिः ।। साऽद्याप्यचलिताऽन्येन स्थिता नियतिरुच्यते। -३,५४,२२.
आमहारुदपर्यन्तमिदमित्थमिति स्थितेः ।
पातुणपद्मजस्पन्दं नियमान्नियतिः स्मृता । -६,३७,२१. अर्थात् रुद्रादि देवता भी नियति का उल्लंघन नहीं कर सकते. माधव और हर के समान सर्वज्ञ और बहुज्ञ भी नियति के नियमों में व्यतिक्रम नहीं कर सकते. वर्तमान विश्व के प्रारम्भ में नियति की जैसी कल्पना की गई थी, उसी रूप में वह आज भी अचल भाव से स्थित है. रुद्र से लेकर छोटे-से-छोटे तृण पर्यन्त नियति का ही नियमन-व्यापार सर्वत्र दिखलाई पड़ता है. इस नियमन के कारण ही इसे नियति कहा गया है. योगवासिष्ठ में ही नियति की नटी के रूप में भी कल्पना की गई है
नियतिनित्यमुद्व गवर्जिता परिमार्जिता।
एषा नृत्यति वै नृत्यं जगज्जालकनाटकम् । -प्रकण ६, सर्ग ३७, श्लोक २३. अर्थात् यह नियति नित्य उद्वेगरहित तथा परिमाजित रहते हुए जगज्जाल रूप नाटक रचती रहती है. Rational
Mysticism के लेखक ने भी नियति के प्रभुत्व को स्वीकार किया है- “Individual man can modify the course of nature on the earth in many minor ways; but he can not alter the course of nature as a whole, that is to say, those cosmic happenings which are determind by a higher power, or by higher powers" -(Kingsland) : Rational Mysticism p 354 अर्थात् बहुत से छोटे-मोटे रूपों में तो व्यक्ति प्रकृति के कार्य-व्यापार में रूपान्तर उपस्थित कर सकता है किन्तु कुल मिलाकर वह प्रकृति की पद्यति को बदल नहीं सकता अर्थात् विश्व की जो घटनाएँ किसी उच्चतर शक्ति अथवा उच्चतर शक्तियों द्वारा नियत कर दी जाती हैं, उनमें परिवर्तन उपस्थित करना व्यक्ति के वश का रोग नहीं. योगवासिष्ठकार के मतानुसार नियति विश्व की नियामिका शक्ति है, जिसके अनुशासन को अखिल भुवन तथा चर और अचर सभी स्वीकार करते हैं. एक छोटी-सी सभा के संचालन के लिये भी जब नियम बनाए जाते हैं, तब इस विराट् ब्रह्माण्ड के लिये नियमों की कितनी अधिक आवश्यकता है, इसका सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है. नियमों के अभाव में सर्वत्र धांधली और अव्यवस्था फैल जायगी, कर्म-व्यवस्था के संबन्ध में वेद में भी कहा गया है
'न किल्बिषमत्र नाधारो अस्ति न यन्मिगैः सममान एति ,
अनूनं निहितं पात्रं न एतत् पक्तारं पक्वः पुनराविशति ।' अर्थात् कर्म-व्यवस्था में किसी प्रकार की त्रुटि नहीं हो सकती. आम का बीज डालने से जमीन में आम ही उगता है. यह कारण-कार्यविधान विश्व में सर्वत्र लागू है. यहां कोई आधार या सिफारिश भी नहीं चलती और न यही संभव है कि मित्रों के साथ गति प्राप्त की जा सके. किसी भी बाह्य कारण से हमारे इस कर्म-फल-पात्र में कोई घटा-बढ़ी नहीं