Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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देवनारायण शर्मा : हिन्दू तथा जैनसाधु-परम्परा एवं प्राचार : ४४३
यहाँ धर्माचार्यों ने प्रथम तो यह अनुभव किया कि सबके लिये सब अवस्थाओं में इन व्रतों का पूर्ण परिपालन संभव नहीं है. अतएव जैन-धर्म में तो इन व्रतों के दो स्तर स्थापित किये गये--अणु और महत् अर्थात् एकदेश और सर्वदेश. पश्चात् काल में आवश्यकतानुसार इनके अतिचार भी निर्धारित हुए, जिससे सच्चे अर्थ में (भावतः) इन व्रतों का पालन हो सके. इस प्रकार व्रतों के अणु और महत् इन दो विभागों के द्वारा जैनधर्म में गृहस्थ और साधु-आचार के बीच भेद प्रकट करनेवाली स्पष्ट रेखा खींच दी गयी. प्रायः इसी तरह की मिलती जुलती व्यवस्था हम हिन्दूधर्म में भी पाते हैं जो व्यक्ति के जीवन व यथाक्रम ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास-धारण की चतुर्विध आश्रम-व्यवस्था से प्रमाणित है. वस्तुतः व्यक्ति ब्रह्मचर्याश्रम से जिस जीवन का प्रारम्भ करता है उसकी परिसमाप्ति संन्यासाश्रम में ही जाकर होती है, जबकि साधक उस गृह तथा परिवार को भी, जो उसके बाल्य और युवा दोनों अवस्थाओं में आश्रय एवं आकर्षण के स्थान रहे हैं, बन्धन का कारण समझता हुआ छोड़ कर चल पड़ता है और पुनः उसकी ओर लौट कर देखता तक नहीं. वस्तुतः यह मानव-जीवन का एक महान् परिवर्तन एवं चरम साधना है. ऐसे साधु-आचार पर प्रकाश डालने वाले ग्रंथ भी भारतीय साहित्य के अंतर्गत अधिकांश एवं शीर्ष-स्थानीय माने जाते हैं.. यह साधु आचार विषयक साहित्य बहुत विशाल है. इसकी विशालता का प्रधान कारण यह कहा जा सकता है कि प्राचीन काल से ही धर्म एवं अध्यात्मचर्चा का प्रधान केन्द्र इस भारत में प्रायः जितने भी धार्मिक ग्रन्थ लिखे गए , उनमें शायद ही कोई ग्रंथ बचा हो जो प्रत्यक्ष अथवा परोक्षरूप से साधु-आचार से सम्बद्ध न हो. प्रायः इन सभी ग्रंथों में मानव के चरित्र को निर्मल एवं उज्जवल बनाने के यथासंभव सभी प्रयत्न किये गए हैं, जिनमें उद्योतमान मणि-दीप के रूप में अनिवार्यः साधु-आचार भी वर्णित है. इस प्रकार भारतीय परम्परा में जो भी साहित्य धार्मिक क्षेत्र के अन्तर्गत आता है, उसे हम प्रायः साधु-आचार विषयक भी मान सकते हैं, जिनकी संख्या सहस्त्रावधि ग्रंथों से भी कहीं अधिक है. पर यहां यह नहीं भूलना चाहिए कि यह साहित्य किन्हीं एक या दो पन्थों अथवा सम्प्रदायों की सम्पत्ति हो,इनके अन्तर्गत तो सैकड़ों पन्थ और सम्प्रदाय आ जाते हैं. किन्तु यहाँ निबन्ध की सीमा को देखते हुए मात्र हिन्दू और जैन साधु-आचार का सामान्य परिचय ही अभीष्ट है और इस में भी हिन्दूपरम्परा से प्रतिनिधि ग्रंथ के रूप में मनुस्मृति और जैन परम्परा से मूलाचार इन दो को ही ग्रहण किया गया है, वह भी स्थूल-दृष्टि से सूक्ष्म-दृष्टि से नहीं. क्योंकि 'अरथ अमित अरु आखर थोरे' की उक्ति को चरितार्थ करने वाले इन धर्म ग्रंथों का सूक्ष्म विवेचन स्वत: एक महान् साहित्य रचे जाने की अपेक्षा रखता है.
मनुस्मृति और साधु-प्राचार मनुस्मृति में साधु-आचार का वर्णन वैदिक एवं वर्णाश्रम परम्परा पर आधारित है. मनु ने ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ
और संन्यास, इन चारों आश्रमों का क्रमानुसार पालन पर जोर देते हुए साधु के वानप्रस्थी और संन्यासी नामके दो विभाग किये हैं. यही कारण है कि वानप्रस्थाश्रम में प्रवेश करने से पूर्व स्नातक द्विज के लिये उन्होंने विधिवत् गृहस्था श्रमी होना आवश्यक बताया है. इतना ही नहीं, मनु के मत से गृहस्थ जब अतिवृद्ध हो जाए, उनकी त्वचा शिथिल पड़ जाय, उसके बाल जब सफेद दिखने लगें और जब वह पौत्रवान् हो जाए तब सांसारिक विषयों से स्वभावत: विरत हुआ--वह वन का आश्रय ग्रहण करे. वानप्रस्थाश्रम स्वीकार कर लेने के बाद, साधक ग्राम्य आचार एवं उपकरणों का भी परित्याग कर दे. पत्नी की इच्छानुसार ही, वह उसे अपने साथ लेले अथवा पुत्र के संरक्षण में ही रख दे. पर, वन में वानप्रस्थी श्रोत अग्नि तथा उससे सम्बन्धित साधन सुक, सुवा, आदि के साथ ही निवास करे. वानप्रस्थी के लिये मुनिनिमित्तक अन्नों एवं वन में उत्पन्न पवित्र शाक, मूल, फलादि से गृहस्थों के लिये विहित पंचमहायज्ञों का पालन करना मनु ने आवश्यक बतलाया है.
१. देखिये मनु० अध्या ६.
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