Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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देवनारायण शर्मा : हिन्दू तथा जैनसाधु-परम्परा एवं प्राचार : ४४१ प्रमाण क्या है ? इन प्रश्नों ने मानव को स्थूल एवं प्रत्यक्ष से सूक्ष्म तथा अनुमान की ओर अग्रसर होने को बाध्य किया. और वे ऐसे धर्म की खोज में लगे जो भोगप्रधान नहीं, योगप्रधान हो, वैराग्य-प्रधान हो. सारांशतः हम यहीं से साधुपरम्परा का सूत्रपात होता हुआ देखते है. वैदिकदर्शन में वैराग्य की मनोभावना का आरम्भ उपनिषदों में ही होता है और वह भावना बौद्ध तथा जैनदर्शनों में अधिक प्रबल होती हुई दीखती है. उपनिषदों से आत्म-विद्या और तपश्चर्या की जो परिपाटी चली उससे प्रेरित होकर लोग अधिक संख्या में विरागी होने लगे. इसका कारण यह था कि जो लोग यह समझते थे कि उन्हें आत्म-ज्ञान प्राप्त हो गया तथा वे जीवन्मुक्त हो गये हैं या जीवन्मुक्ति की राह पर हैं, वे संसार को छोड़कर इसलिए संन्यासी या विरागी हो जाते थे कि कहीं गृहस्थाश्रम में रहने से वे इस अवस्था से पतित न हो जाएं. ये संन्यासी और परिव्राजक सर्वत्र घूमते रहते थे. पेड़ों के नीचे अथवा कुटियों में उनका सोना होता था और वनों में तपश्चर्या. इन साधुओं की विशेषता यही थी कि यज्ञ में इनका विश्वास नहीं था, कर्मकाण्ड को वे नहीं मानते थे और ऐहिक सुखों को वे मनुष्य का हीन उद्देश्य बतलाते थे. उनका लक्ष्य मनुष्य के भीतर वैराग्य जगाकर उसे ईश्वर की ओर ले जाना था. यद्यपि यह संन्यास मार्ग वैदिककाल में ही प्रचलित हो चुका था, तो भी प्रायः वह कर्मकाण्ड से आगे कदम नहीं बढ़ा सका था. स्मृति आदि ग्रन्थों में संन्यास लेने की बात कही गयी है, परन्तु उसमें प्रधानतः पूर्वाश्रमों के कर्तव्यपालन' का उपदेश दिया ही गया. परन्तु यहाँ यह विचारणीय है कि जो कर्मकाण्ड अथवा यज्ञवाद इतनी प्रबलता से देश में प्रचलित था
और जिसका समर्थक प्रभावशाली पुरोहितवर्ग था, उसने भी इस उपनिषद्कालीन निवृत्ति-प्रधान धर्म के सामने घुटने टेक दिये. इस आश्चर्यमय परिवर्तन को देखकर यह स्पष्ट कहना पड़ जाता है कि उसके अपदस्थ हो जाने के कुछ ऐसे प्रबल कारण अवश्य उपस्थित हुए, जिन्होंने उसके मानने वालों पर तीव्र प्रतिक्रिया उत्पन्न की. वास्तव में इसमें से पहला एवं प्रधान कारण जैन एवं बौद्ध धर्मों का प्रचार-प्रसार है. क्योंकि इन्हीं दोनों धर्मों ने प्रायः चारों वर्गों के लिए संन्यासमार्ग का द्वार खोल दिया. पर, इसका तात्पर्य यह कदापि नहीं कि भगवान् महावीर तथा बुद्ध के पूर्व इस देश में वैरागी अथवा संन्यासी थे, ही नहीं. थे, पर संन्यास अथवा वैराग्य-ग्रहण करने का अधिकार केवल ब्राह्मणवर्ग को ही था, अन्य वर्गों को नहीं. इस कारण ये वैरागी और संन्यासी इने गिने ही देखने को मिलते थे. लेकिन इन दोनों श्रमण-सम्प्रदायों ने अपने आचारों एवं निवृत्ति प्रधान उपदेशों से इस प्रकार देश की जनता को अपनी ओर आकृष्ट किया कि पुरोहित-धर्म जो चिरकाल से पोषित एवं सत्कृत होने के कारण दृढमूल हो चुका था, उसकी जड़ सर्वथा हिल गयी. वस्तुतः यह श्रमण वर्ग भी ब्राह्मण वर्ग के साथ ही इस देश में विद्यमान रहा है. भगवान् ऋषभदेव को जिन्हें श्रीमद्भागवत में भगवदंशावतार माना गया है, जैनलोग अपना आदि तीर्थकर मानते हैं. बौद्धों के कथानुसार सिद्धार्थ गौतम वास्तव में अन्तिम बुद्ध हैं और त्रेतायुग के दाशरथी राम भगवान् बुद्ध के एक अवतार समझे जाते हैं. हिन्दुओं के प्राचीन-ग्रन्थों में यत्र-तत्र जैनों और बौद्धों के प्राचीन अस्तित्व के प्रमाण मिलते हैं. इसलिए यह ठीक-ठीक कहना कठिन है कि ब्राह्मण और श्रमण-सम्प्रदायों में कौन किसकी अपेक्षा अधिक प्राचीन है. वेद में वेदनिन्दकों, नास्तिकों और यज्ञ में विध्न डालने वाले दृश्यादृश्य सभी तरह के प्राणियों के विरुद्ध मन्त्र और निराकरण के साधन हैं. इससे यह तो स्पष्ट हो ही जाता है कि इन दोनों सम्दाओं का रूप चाहे जो भी हो, पर इसमें सन्देह नहीं कि उपर्युक्त दोनों मतो के लोग वेदमन्त्रों के रचना-काल से पहले के ही है. ये श्रमण अवैदिक होते थे. ब्राह्मण यज्ञपात्र को मानते थे, श्रमण उन्हें अनुपयोगी समझते थे. सभी ब्राह्मण आस्तिक थे, किन्तु श्रमणों के भीतर आस्तिक और नास्तिक दोनों ही प्रकार के लोग थे. अनुमान यह है कि योग और कृच्छ्राचार की परम्परा इस देश में आर्यों के आगमन के पूर्व से ही विद्यमान थी और इस परम्परा का वर्द्धन एवं पोषण संभवतया
१ मनु० अध्या०६।१२
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