Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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४४४ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : द्वितीय अध्याय
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मुनि की वेश-भूषा एवं रूप के सम्बन्ध में भी मनु के विचार बड़े स्पष्ट हैं, उनकी राय में मुनि चाहे तो मृगचर्म धारण करे अथवा वस्त्रखण्ड, पर उसे जटा, दाढ़ी, मूंछ एवं नख आदि रखने ही हैं. मुनि अपने भोजन में से यथाशक्ति वलि तथा भिक्षा प्रदान करे एवं आश्रम में आये हुए अतिथियों की जल, कंद, मूल, फलादि से अर्चना भी करे. तपस्वी को नित्यवेदाभ्यास, दानशीलता, निर्लोभ एवं सर्वहित में रत रहते हुए अमावश्या, पूर्णिमा आदि पर्यों में शास्त्रानुसार किये जाने वाले यज्ञों का भी सम्पादन करना चाहिए.उस मुनि को वन में उत्पन्न नीवार आदि से निर्मित यज्ञ के योग्य हवि को देवताओं को अर्पित कर शेष स्वयंकृत लवण के साथ ग्रहण करना चाहिए. उसके लिये शहद, मांस, तथा भूमि में उत्पन्न पुष्प आदि सभी त्याज्य हैं. मनु ने मुनिको आश्विनमास में सभी पूर्व संचित धान्यों शाक-मूल-फलों, यहां तक कि शरीर में धारण किये गये जीर्ण-वस्त्रखण्ड को भी छोड़ देने का आदेश दिया है. अफाल कृष्ट भूमि के धान्य ही उनकी दृष्टि में तपस्वी के लिये ग्राह्य हैं. फालकृष्ट भूमि से उत्पन्न अन्न वनान्तर्गत का भी, यहां तक कि उत्सृष्ट भी ग्राह्य नहीं है. भले ही इसके फलस्वरूप मुनि को भूखा ही क्यों न रह जाना पड़े. सामर्थ्य के अनुसार प्राप्त अन्न को भी रात्रि अथवा दिन के चतुर्थ अथवा अष्टकाल में ही वानप्रस्थी ग्रहण करे. यहां अन्य कालों का निषेध किया गया है. तपस्वी उस अन्न को भी कृष्णपक्ष में एक-एक पिण्ड घटाता हुआ एवं शुक्लपक्ष में एक-एक पिण्ड बढ़ाता हआ ग्रहण कर चान्द्रायणव्रत के द्वारा जीवन-यापन करे. इसके विकल्प में कालपक्व तथा वृक्ष से गिरे हए फल के खाने की व्यवस्था है. वानप्रस्थी को जीवन धारण के योग्य भिक्षा वानप्रस्थ ब्राह्मणों से अथवा वनवासी ग्रहस्थ ब्राह्मणों से अथवा उपर्युक्त दोनों के अभाव में ग्रामवासियों से भी ग्रहण करनी चाहिए. पर साथ ही, यहां यह भी ध्यान देने योग्य है कि वह भिक्षा भी किसी के पात्र में नहीं अपितु पत्ते के दोने में, कपाल खण्ड में अथवा हाथों में ही आठ ग्रास लेनी चाहिए. यहां जिस प्रकार आहार ग्रहण करने आदि के संबंध के कठोर नियम मनु ने बताये हैं, उसी प्रकार मुनि की दिनचर्या भी सुकर नहीं गिनायी है. तपस्वी के लिये भूमि पर लौटते हुए चलना, परों के अग्रभाग से दिन भर खड़ा रहना, संध्या, प्रातः एवं मध्याह्न में स्नान करना तथा इनसे भी बढ़ कर ग्रीष्म ऋतु में पंचाग्नि के बीच, वर्षा में खुले आकाश के नीचे एवं हेमन्त ऋतु में आर्द्रवस्त्र धारण कर तप वृद्धि करने का विधान है. इसके बाद भी तीनों कालों में स्नान-क्रियादि से निवृत्त होकर देवता, ऋषि एवं पितरों का तर्पण व अन्यान्य उग्रतर व्रतों का पालन करते हुए अपने शरीर को कृश बनाना यह भी तपस्वी का धर्म बताया गया है. इस प्रकार इन नियमों का तथा शास्त्रोक्त अन्य नियमों का भी पालन करते हुए मुनि की विद्या, तप आदि की वृद्धि शरीर की शुद्धि एवं ब्रह्मत्व की सिद्धि के लिये उपनिषदों में पढ़ो गयी विविध श्रुतियों का अभ्यास करना चाहिए. असाध्य रोगों से आक्रान्त हो जाने की स्थिति में तपस्वी को शरीर निपातपर्यन्त जल तथा पवन का आहार करते हुए योगनिष्ठ होकर ईशान-दिशा की ओर आगे बढ़ते चला जाना चाहिए, क्यों कि इस प्रकार शोकभय रहित शरीर-परित्याग करने वाला ही मोक्ष का अधिकारी होता है. उपर्युक्त प्रकार से वानप्रस्थी तपस्वी के आचार का वर्णन करने के पश्चात् मनु ने परिव्राजक साधुओं का प्राचार बतलाया है. वस्तुतः यह जीवन का अंतिम पहलू है, जिसके पश्चात् जीवन में और कुछ करने को नहीं रह जाता. यही स्थिति वेदान्तियों के शब्दों में सोऽहमस्मि की अवस्था मानी जाती है, जबकि वानप्रस्थी मुनि गृह का पूर्ण परित्याग कर पवित्र दण्ड, कमण्डलु आदि के साथ पूर्ण काम एवं निरपेक्ष रूप से संन्यास धारण कर लेता है और अनग्नि एवं अनिकेत होकर मात्र भिक्षा के लिये ही ग्राम की शरण लेता है और अन्यथा नहीं. वह इस अवस्था में शरीर की उपेक्षा करता हुआ स्थिर-बुद्धि होकर ब्रह्म चिंतन में एकनिष्ठ भाव से अपने भिक्षापात्र के रूप में कपाल, निवास के लिये वृक्ष की छाया एवं शरीर आवेष्टन के लिये जीर्णवस्त्र धारण कर लेता है. साथ ही वह ब्रह्म-बुद्ध समलोष्टाश्मकांचन की भावना से युक्त होता हुआ पूर्ण जीवन्मुक्त लक्षित होता है. वह न जीने की ही कामना करता है और न मरने की ही. वह मात्र एक आज्ञाकारी किंकर की तरह स्वामी-काल के आदेश की प्रतीक्षा में रहता है. वह सदा आँखों से
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