Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
View full book text
________________
४५० : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : द्वितीय अध्याय
-0-0-0--------------
स्तनाकार होते हैं परन्तु वे स्तनों का कुछ भी काम नहीं देते-उनसे दूध नहीं निकलता-उसी प्रकार विना तदनुकूल भाव के पूजा, तप, दान, जपादिक सब क्रियाएं भी देखने की ही क्रियाएं होती हैं, पूजादिक का वास्तविक बल उनसे कुछ भी प्राप्त नहीं हो सकता.' ज्ञानी-विवेकी मनुष्य ही यह ठीक जानता है कि किन भावों से पुण्य बंधता है--किन से पाप और किन से दोनों का बन्ध नहीं होता स्वच्छ, शुभ शुद्ध भाव किसे कहते हैं ? और अस्वच्छ, अशुभ. अशुद्ध भाव किस का नाम है ? सांसारिक विषयसुख की तृष्णा अथवा तीव्र कषाय के वशीभूत होकर जो पुण्य कर्म करना चाहता है वह वास्तव में पुण्य कर्म का सम्पादन कर सकता है या कि नहीं और ऐसी इच्छा धर्म की साधक है या बाधक-वह खूब समझता है कि सकाम-धर्म साधन मोहक्षोभादि से घिरा होने के कारण धर्म की कोटि से निकल जाता है, धर्म वस्तुका स्वभाव होता है. और इसलिए कोई विभाव परिणति धर्म का स्थान नहीं ले सकती. इसी से वह अपनी धामिक क्रियाओं में तद्पभाव की योजना द्वारा प्राण का संचार कर के उन्हें सार्थक और सफल बनाता है. ऐसे ही विवेकी जनों के द्वारा अनुष्ठित धर्म को सब सुख का कारण बताया है. विवेक की पुट विना अथवा उसके सहयोग के अभाव में मात्र कुछ क्रियाओं के अनुष्ठान का नाम ही धर्म नहीं है, ऐसी क्रियाएं तो जड़-मशीनें भी कर सकती हैं और कुछ करती हुई देखी भी जाती हैं. फोनोंग्राफ के कितने ही रिकार्ड खूब भक्ति-रस के भरे हुए गान तथा भजन गाते हैं और शास्त्र पढ़ते हुए भी देखने में आते हैं. और भी जड़ मशीनों से आप जो चाहें धर्म की बाह्य क्रियाएं करा सकते हैं. इन सब क्रियाओं को करके जड़ मशीनें जिस प्रकार धर्मात्मा नहीं बन सकतीं और न धर्म के फल को ही पा सकती हैं, उसी प्रकार अविवेकपूर्वक अथवा सम्यरज्ञान के विना धर्म की कुछ क्रियाएं कर लेने मात्र से ही कोई धर्मात्मा नहीं बन जाता और न धर्म के फल को ही पा सकता है. ऐसे अविवेकी मनुष्यों और जड़ मशीनों में कोई विशेष अंतर नहीं होता-उनकी क्रियाओं को सम्यक्चारित्र न कह कर 'यांत्रिक चारित्र' कहना चाहिए. हां, जड़ मशीनों की अपेक्षा ऐसे मनुष्यों में मिथ्याज्ञान तथा मोह की विशेषता होने के कारण वे उसके द्वारा पाप बन्ध करके अपना अहित जरूर कर लेते हैं--जब कि जड़ मशीनें वैसा नहीं कर सकतीं. इसी यांत्रिक चारित्र के भुलावे में पड़कर हम अक्सर भूले रहते हैं और यह समझते रहते हैं कि हमने धर्म का अनुष्ठान कर लिया ! इसी तरह करोड़ों जन्म निकल जाते हैं और करोड़ों वर्ष की बालतपस्या से भी उन कर्मों का नाश नहीं हो पाता, जिन्हें एक ज्ञानी पुरुष त्रियोग के संसाधनपूर्वक क्षणमात्र में नाश कर डालता है. इस विषय में स्वामी कार्तिकेय ने अपने 'अनुप्रेक्षा' संथ में, अच्छा प्रकाश डाला है. उनके निम्नवाक्य खास तौर से ध्यान देने योग्य हैं :
कम्म पुराणं पावं हेऊ-तेसि च होंति सच्छिदरा । मंदकसाया सच्छा तिब्वकसाया असच्छा हु। जीवो वि हवइपावं अइतिव्यकसायपरिणदो णिच्च । जीवो हवेइ पुण्णं उवसमभावेण संजुत्तो। जो अहिलसेदि पुरणं सकसानो विसयसोक्खतबहाए । दूरे तस्स विसोही विसोहिमूलाणि पुण्णाणि । पुण्णासएण पुण्णे जहो णिरीहस्स पुण्णसंपत्ती। इय जाणिऊण जइणो पुरणे वि य श्रायरं कुणह ।। पुण्णं बंधदि जीवो मंदकसाएहिं परिणदो संतो। तम्हा मंदकसाया हेऊ पुण्णस्स ण हि बंछा ॥ गाथा १०, १६०, ४१०-४१२.
१. भाव-हिनस्य पूजादि-तपोदान-जपादिकम् ।
व्यर्थदोक्षादिकं च स्थादजाकंठे स्तनाविव ।
Jain Education Intemational
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org