Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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श्रीदरबारीलाल जैन, कोठिया एम०ए०, न्यायाचार्य, शास्त्राचार्य, हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी जैनदर्शन में संलेखना का महत्त्वपूर्ण स्थान
[अद्यतन युग में जैन संस्कृति के मार्मिक तथ्यों को न समझने के कारण संलेखना जैसी जीवन की पवित्र क्रिया को भी आत्मघात की कोटि में ला खड़ा किया जाता है. वस्तुतः आत्मघात और अनशन में स्पष्टतः महद अन्तर है. वह यह कि प्रात्मघात के लिये मनुष्य तब ही उत्प्रेरित होता है जब उसकी मनोवांछित विशिष्ट पौद्गलिक सामग्री प्रयत्न करने पर भी प्राप्त नहीं होती या कारणवश कषाय के वशीभूत होकर संसार से ऊब कर जीवन नष्ट कर डालना चाहता है. अर्थात् नैराश्य-पूर्ण जीवन की अन्तिम अभिव्यक्ति मृत्यु में परिणत हो जाती है. जब कि संलेखना अनशन ठीक इसके विपरीत सत्य है. मुमुक्षु आत्मानों के लिये देह की तब तक ही आवश्यकता मानी जाती है जब तक वह समतामूलक संयम की
आराधना में सहायक है. तदनन्तर अनाकांक्षीभाव से, शरीर के प्रति तीन अनासक्तता के कारण जो शरीर-पात किया जाता है उसमें किसी भी प्रकार की स्वार्थपरक भावना या क्षोभ के अत्यंताभाव के कारण उसे अात्मघात की संज्ञा देना बुद्धि को अर्धचन्द्राकार देना है. प्रश्न आन्तरिष्ट दृष्टि का है, न कि स्थूल देह का. प्रत्येक संस्कृति का जीवन और अध्यत्म के प्रति अपना निजी
दृष्टिकोण होता है. --सम्पादक पृष्ठभूमि जन्म के साथ मृत्यु का और मृत्यु के साथ जन्म का अनादि प्रवाह-सम्बन्ध है. जो उत्पन्न होता है उसकी मृत्यु भी अवश्य होती है और जिसकी मृत्यु होती है उसका पुनः जन्म भी होता है.' इस प्रकार जन्म मरण का चक्र निरन्तर चलता रहता है और इसी चक्र में आत्माओं को नाना क्लेश एवं दुःख उठाने पड़ते हैं. परन्तु कषाय और विषय-वासनाओं में आसक्त व्यक्ति इस ध्रुव सत्य को नहीं समझते. इसीलिए जब कोई पैदा होता है तो वे उसका 'जन्मोत्सव' मनाते तथा हर्ष प्रकट करते हैं. लेकिन जब कोई मरता है तो उसकी मृत्यु पर कोई उत्सव नहीं किया जाता. प्रत्युत, शोक एवं दुःख प्रकट किया जाता है. संसार-विरक्त व्यक्ति की वृत्ति इससे विपरीत होती है. वह अपनी मृत्यु का 'उत्सव' मनाता है और उसपर प्रमोद व्यक्त करता है. अतएव मनीषियों ने उसकी मृत्यु के उत्सव को 'मृत्युमहोत्सव' के रूप में वर्णन किया है. इस वैलक्षण्य को
१. जा तस्य हि ध्रुवं मृत्युधं वं जन्म मृतस्य च ।-गीता २-२७. २. संसारासक्तचित्तानां मृत्यीत्यै भवेन्नृणाम् ।
मोदायते पुनः सोऽपि ज्ञानवैराग्यवासिनाम् । ज्ञानिन् ! भयं भवेत् कस्मात्माप्ते मृत्युमहोत्सवे | स्वरूपस्थः पुरं यासि देहाद हान्तरस्थितिः।-शान्तिसोपान, मृत्युमहोत्सव श्लो०१७, १०,
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