Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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बंशीधर : जैनदृष्टि से मनुष्य में उच्च-नीच व्यवस्था का प्राधार : ४७६
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कर्म का ही उदय सर्वदा विद्यमान रहता है. इसलिए उनके जीवन में व्यावहारिक विषमता को स्थान प्राप्त नहीं होता है लेकिन कर्मभूमिगत मनुष्यों की जीवनवृत्तियों में जो अप्राकृतिकता स्वभावतः पायी जाती है उसके कारण उनको अपनी जीवनवृत्ति की सम्पन्नता के लिये उक्त सामाजिक व्यवस्थाओं की अधीनता में पुरुषार्थ का उपयोग करना पड़ता है और ऐसा देखा जाता है कि उनके द्वारा अपनी जीवनवृत्ति के संचालन के लिये अपनाये गये भिन्नभिन्न प्रकार के पुरुषार्थों में उच्चता और नीचता का वैषम्य स्वभावतः हो जाता है जिसके कारण उनकी जीवनवृत्तियां भी उच्च और नीच के भेद से दो वर्गों में विभाजित हो जाती हैं. यद्यपि का भूमिगत मनुष्यों में जीवनवृत्तियों की बहुत-सी विविधतायें पायी जाती हैं और जीवनवृत्तयों की इन्हीं विविधताओं के आधार पर ही उनमें ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र-इन चार वर्णों की तथा इन्हीं वर्णों के अन्तर्गत जीवनवृत्तियों के आधार पर ही यथायोग्य लुहार, चमार आदि विविध जातियों की स्थापना को जैन संस्कृति में स्वीकार किया गया है परन्तु जीवनवृत्तियों के आधार पर स्थापित सभी वर्गों और उनके अन्तर्गत पायी जाने वाली उक्त प्रकार की सभी जातियों को भी जीवनवृत्तियों में पायी जाने वाली उच्चता और नीचता के अनुसार ही उच्च और नीच दो वर्गों में संग्रहीत कर दिया गया है. इस प्रकार उच्च और नीच दोनों प्रकार की जीवनवृत्तियों को ही क्रमश: उच्चगोत्र कर्म और नीचगोत्र कर्म के उदय का जैन संस्कृति में मापदण्ड स्वीकार किया गया है. जीवों में उच्चगोत्र कर्म का किस रूप में व्यापार होता है ? अथवा जीवों में उच्चगोत्र कर्म का क्या कार्य होता है ? इस प्रश्न का जो समाधान आचार्य श्रीवीरसेन स्वामी ने स्वयं किया है और जिसे इन्होंने स्वयं ही निर्दोष माना है. उसमें मनुष्यों की इसी पुरुषार्थप्रधान जीवनवृत्ति को आधार प्ररूपित किया है. आचार्य श्रीवीरसेन स्वामी का वह समाधानरूप व्याख्यान निम्न प्रकार है : 'न, जिनवचनस्यासत्यत्वप्रसंगात्. तद्विरोधोऽपि तत्र तत्कारणाभावतोऽवगम्यते. न च केवलज्ञानविषयीकृतेष्वर्थेषु सकलेवपि रजोजुषां ज्ञानानि प्रवर्तन्ते येनानुपलम्भाज्जिनवचनस्याप्रमाणत्वमुच्येत. न च निष्फलमुच्चैर्गोत्रम् , दीक्षायोग्यसाध्वाचाराणां साध्वाचारैः कृतसंबन्धानां आर्यप्रत्ययाभिधानव्यवहारनिबन्धनानां पुरुषाणां संतानः उच्चैर्गोत्रम्. तत्रोत्पत्तिहेतुः कर्माप्युच्चैर्गोत्रम्. न चात्र पूर्वोक्तदोषाः संभवन्ति, विरोधात्. तद्विपरीतं नीचैर्गोत्रम्. एवं गोत्रस्य हूँ एव प्रकृती भवतः." पहले जो समूचे गोत्रकर्म के अभाव की आशंका इस लेख में उद्धृत धवलाशास्त्र की पुस्तक १३ के पृष्ठ २८८ के व्याख्यान में प्रगट कर आये हैं, उसी का समाधान करते हुए आगे वहीं पर ऊपर लिखा व्याख्यान आचार्य श्रीवीरसेन स्वामी ने किया है. उसका हिन्दी अर्थ निम्न प्रकार है : "गोत्रकर्म के अभाव की आशंका करना ठीक नहीं है क्योंकि जिनेन्द्र भगवान् ने स्वयं ही गोत्रकर्म के अस्तित्व का प्रतिपादन किया है और यह बात निश्चित है कि जिनेन्द्र भगवान् के वचन कभी असत्य नहीं होते हैं. असत्यता का जिनेन्द्र भगवान् के वचन के साथ विरोध है अर्थात् वचन एक ओर तो जिनेन्द्र भगवान के हों और दूसरी ओर वे असत्य भी हों-यह बात कभी संभव नहीं है. ऐसा इसलिए मानना पड़ता है कि जिन भगवान् के वचनों को असत्य मानने का कोई कारण ही दृष्टिगोचर नहीं होता है. जिन भगवान् ने यद्यपि गोत्रकर्म के सद्भाव का प्रतिपादन किया है किन्तु हमें उसकी (गोत्रकर्म की) उपलब्धि नहीं होती है, इसलिए जिन-वचन को असत्य माना जा सकता है, पर ऐसा मानना ठीक नहीं है, क्योंकि केवलज्ञान के विषयभूत सम्पूर्ण पदार्थों में हम अल्पज्ञों के ज्ञान की प्रवृत्ति ही नहीं होती. इस प्रकार उच्चगोत्र-कर्म को निष्फल मानना भी ठीक नहीं है क्योंकि जो पुरुष स्वयं तो दीक्षा के योग्य साधु आचार वाले हैं ही तथा इस प्रकार के साधु आचार वाले पुरुषों के साथ जिन का सम्बन्ध स्थापित हो चुका है उनमें 'आर्य' इस प्रकार के प्रत्यय और 'आर्य' इस प्रकार के शब्द-व्यवहार की प्रवृत्ति के भी जो योग्य हैं, उन पुरुषों के संतान' अर्थात् कुल
१. संततिर्गोत्र जननकुलान्यभिजना स्वयौ. वंशोऽन्वायः संतान -अमर कोष ब्रह्म वर्ग.
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