Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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जयभगवान जैन : वेदोत्तरकाल में ब्रह्मविद्या की पुनर्जागृति :: ४६१ तक अविनय के भय से जैन विद्वानों को अपना साहित्य दूसरों को दिखाना या उसे मुद्रित कराना तक भी सह्य, ने था. इसी कारण जैन साहित्य का परिचय बाहर के विद्वानों को आज तक बहुत कम हो पाया है. प्रश्न हो सकता है कि ये जिज्ञासु ब्राह्मण विद्वान ब्रह्मविद्या सीखने के लिये उन वनवासी त्यागी तपस्वी यतियों के पास क्यों नहीं गये जो साक्षात् धर्ममूर्ति और ब्रह्मविद्या की निधि थे? उन्हें छोड़ कर वे गृहस्थ क्षत्रिय राजाओं के पास क्यों गये ? इसका उत्तर सम्भवतः यही हो सकता है कि ब्राह्मण जन उस समय ब्रह्मविद्या की खोज में न केवल अध्यात्मधनी क्षत्रिय कुलों में प्रत्युत यतियों के पास भी पहुंच रहे थे, परन्तु जो जिज्ञासु यतियों के सम्पर्क में आये, वे ब्रह्मविद्या के ज्ञानमात्र से सन्तुष्ट न होकर स्वयं यतियों के समान आत्मसाधना में लग गये. उन्होंने ब्रह्मविद्या के तत्त्वों को संकलन करने और साहित्यिक रूप में पेश करने का कोई यत्न नहीं किया. केवल वे विद्वान् ही जो क्षत्रियघरानों से ब्रह्मविद्या ग्रहण करने के बाद भी गृहस्थ जीवन बिताते रहे, इन तत्त्वों को आख्यानों के रूप में सुरक्षित रखने का परिश्रम करते रहे. इस कारण उपनिषदों में उनके आख्यान आज भी उपलब्ध हैं. लिपिबोध और लिखित साहित्य-सिन्ध और पंजाब के मोहनजोदड़ो और हड़प्पा आदि पुराने नगरों के खंडहरों से प्राप्त मोहरों के अभिलेखों से यह सिद्ध है कि भारतीय लोग ईसा पूर्व ३००० वर्ष से भी पहले लिपिविद्या और लेखनकला से भलीभांति परिचित थे, परन्तु जैसा कि अन्य प्रमाणों से सिद्ध है, वे इस लेखनकला का प्रयोग आध्यात्मिक तत्त्वों तथा पौराणिक गाथाओं के संकलन के हेतु न करके केवल मुद्रांकन व लौकिक व्यवसाय के लिये ही करते थे.' अध्यात्मविद्या के प्रचार और प्रसार के लिये वे मौखिक शब्दों से ही काम लेते थे और शिष्य-प्रशिष्य परम्परा से ही वह मौखिक ज्ञान अग्रसर होता जाता था. इसीलिए उस काल में विविध विद्याओं तथा धार्मिक और पौराणिक तथ्यों का बोध श्रुति व श्रुतज्ञान के नाम से प्रसिद्ध था. अथवा गुरु-शिष्य परम्परा से विद्याओं के पदों को बार-बार घोख कर जबानी याद रखा जाता था. इसलिए अभ्यास द्वारा जबानी याद रखी हुई विद्या को आम्नाय कहा जाता था. प्राचीन भारतीय साहित्य में धर्मशिक्षण सम्बन्धी ग्रंथलेखन व पठन का कोई उल्लेख नहीं मिलता-केवल प्रवचन और श्रवण का ही उल्लेख मिलता है. (कठ० उप० २-२-२३) जो श्रोता संतों की संगत में रहकर प्रवचन सुनने में प्रर्याप्त समय बिताते थे, वे दीर्घश्रुत व बहुश्रुत कहलाते थे. (छांदो० १०-७-३२) दूसरी ईस्वी सदी के प्रसिद्ध जैन ग्रंथ तत्त्वार्थ सूत्र ६-२५ तक में स्वाध्याय के अंगों का वर्णन करते हुए वाचना पृच्छा, अनुप्रेक्षा, आम्नाय और धर्मोपदेश का वर्णन किया गया है, पठन का नहीं. जैसा कि यूनानी दूत मैगास्थनीज के वृत्तान्तों से विदित है, ईसा से ३०० वर्ष पूर्व मौर्य शासनकाल तक भारतीय लोगों के पास अपने कोई लिखे कानून तक मौजूद न थे. इसी तरह बौद्ध आचार्यों ने यद्यपि अपने आगमसाहित्य को २४० ईसा पूर्व में संकलित कर लिया था परन्तु इस समय के बहुत बाद तक भी वे लिखित साहित्य का सृजन न कर सके. भारत में सबसे पुराने धार्मिक अभिलेख, जो आज तक उपलब्ध हो पाये हैं वे हैं जो अशोक की धर्मलिपि के नाम से प्रसिद्ध हैं. ये सम्राट अशोक ने अपने शासन काल में तीसरी सदी ईस्वी पूर्व स्तम्भों व शिला-खण्डों पर अंकित कराये थे. लिखित साहित्य के अभाव के कई कारण हो सकते हैं. एक तो योग्य लेखन सामग्री और खासकर कागज का अभाव, दूसरे विद्वानों की महत्त्वाकांक्षा और संकीर्णता कि कहीं दूसरे भी पढ़ लिख कर उन जैसे विद्वान् न बन जावें. तीसरे शिक्षा-दीक्षा की प्राचीन पद्धति. ऊपर वाले कारणों में से तीसरा कारण ही इस अभाव का प्रमुख कारण माना जाता है. शिक्षा-दीक्षा की इस प्राचीन पद्धति के कारण ही भारत के तत्त्ववेत्ता क्षत्रिय विद्वानों ने लिखित रचनायें करने का प्रयास नहीं किया. अध्यात्मविद्या ही क्या, इतिहासविद्या, पुराण विद्या, सर्पविद्या, पिशाचविद्या, असुरविद्या, विश्वविद्या, अंगिरस विद्या, भूतविद्य, पितृविज्ञान, ब्रह्मविद्या, शब्दोच्चारण विद्या, गाथा आदि भारत की अनेक पुरानी विद्याओं का
१. Dr. winternitiz-History of Indian Literature Vol. I, Introduction. pp. 31-40. २. Ancient India as described by Megsthnees-by Macrindle, 1877, p. 69. ३. कुछ विद्वानों का यह मत है कि ये समस्त अभिलेख अशोक के नहीं बल्कि इनमें कुछ उसके पौत्र सम्राट सम्प्रति के हैं.
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