Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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सत्यकाम वर्मा : वर्गों का विभाजन : ४७३
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अथवा सम्प्रसारणों की समस्या हो—पतंजलि उन सब की व्याख्या 'वर्णकदेश' की परिभाषा के द्वारा करते हैं. वर्ण में 'एकदेश' की स्वीकृति आज के 'अल्लाफोन्स' की बात को अधिक स्पष्ट करती है, 'उत्तरपदभूयस्' से भी इतना ही पता चलता है कि गुणस्वरों या वृद्धिस्वरों में स्पष्मृत: 'उत्तरपद' और 'पूर्वपद' जैसी स्थिति खोजी जा सकती है. भर्तृहरि की चमत्कारी देन-किन्तु, भर्तृहरि ने अपने महान् ग्रन्थ 'वाक्यपदीय' में इस समस्या को अत्यधिक वैज्ञानिक आधार पर लिया है. उन्होंने वहाँ जो चमत्कारपूर्ण परिभाषाएँ दी हैं, वे हैं- 'वर्णभाग' और 'वर्णान्तर सरूप'. उनकी इन परिभाषाओं को केवल काल्पनिक कहकर टाला नहीं जा सकता. इनके प्रतिरूप ही वे पद-सम्बन्धी समानान्तर परिभाषाएँ भी देते हैं. ये हैं—'पदभाग' और 'पदान्तरसरूप'.
वर्णान्तरसरूपाश्च वर्णभागा अवस्थिताः । पदान्तरसरूपाश्च वर्णभागा अवस्थिताः ॥-वा० २.११. 'वर्णभाग' की बात को तो वे काफी विस्तार से उठाते हैं. एक स्थान पर वे स्पष्ट कहते हैं :
पदानि वाक्ये तान्येव, वर्णास्ते च पदे यदि । वर्णेषु वर्णभागानां भेदः स्यात् परमाणुवत् ।।-वा० २. २८.
भागानामनुपश्लेषान्नवर्णों न पदं भवेत् । तेषामव्यपदेश्यत्वात्किमन्यदपदिश्यताम् ॥–वा. २. २६. 'वर्ण' बनने के लिये स्पष्ट ही वर्णभागों के उपश्लेष की आवश्यकता है. उनके उपशेलेष के विना वर्ण की स्थिति ही सम्भव नहीं. इस धारणा का विरोध करने वाले कदाचित् भर्तृहरि के निम्न श्लोक को उद्धृत करेंगे :
'पदे न वर्णा विद्यन्ते वर्णेष्ववयवा न च । वाक्यात्पदानामत्यन्तं प्रविवेको न कश्चन ॥–वा० १. ७३. यहां वर्णावयवों की सत्ता का प्रत्यक्ष निषेध-सा दिखाई देता है. परन्तु यही निषेध 'पदो' पर लागू होता है. अर्थात् भर्तृहरि स्पष्ट घोषित करते हैं कि जिस प्रकार की स्थिति वाक्य में पदों की है, उसी प्रकार की स्थिति पदो में वर्गों की, और वर्गों में वर्णभागों या वर्णावयवों की है. वस्तुतः वे उपरोक्त सभी प्रसंगों में अर्थ और वाक्यार्थ की अखण्डता की चर्चा कर रहे हैं उनका कथन यह है कि यदि वाक्य का विभाग पदों में सम्भव है, तो पदों को वर्गों में विभक्त मानना होगा और वर्णों को उन वर्णभागों से बना मानना होगा, जो परमाणुवत् अनन्त और सूक्ष्म हैं. उनका वाक्यार्थ अविभाज्य है. अतः वे पदार्थों की पृथक् सत्ता में विश्वास नहीं रखते. परन्तु, इसका अर्थ यह नहीं कि 'सुप्तिड़न्तं पदम्' की पाणनि की परिभाषा व्यर्थ हो जाती है और पदों की सत्ता ही वाक्य में सिद्ध नहीं होती. यदि पदों की स्थिति वाक्य में होने पर भी उसकी एकता और एकार्थता रक्षित रह सकती है, तब वर्णभागों की स्थिति रहने पर भी वर्ण की एकता कायम रह सकती है.' और यदि आवश्यकता आ पड़े तो :
वाक्यार्थस्य तदेकोऽपि वर्णः प्रत्यायंकः क्वचित् । वा० २. ४५. दोनों में भेद-वर्णान्तरसरूप' और 'वर्णभाग' संज्ञाओं को हमने पृथक् माना है. भर्तृहरि ने भी इनका पृथक् उल्लेख किया. 'वर्णभाग' को वर्तमान 'अल्लाफोन्स' का समकक्ष स्वीकार किया जा सकता है, जब कि 'वर्णान्तरसरूप' की उससे कुछ स्थूल स्थिति है. इसमें कुछ वर्णभाग मिलकर 'सवर्णभाग' की-सी स्थिति में आते हैं. इस 'वर्णान्तरसरूपकता' के आधार पर ही सवर्णों का आविर्भाव सम्भव माना जाता है, जब कि वर्णभाग किसी भी वर्ण की शूक्ष्मतम विभाज्य स्थिति को ही सूचित करता है. यहीं भर्तृहरि यह भी स्पष्ट करते हैं कि इन्हें स्पष्मृतः पहचाना नहीं जा सकता'प्रविवेको न कश्चन'. भाषा विज्ञान-आज के भाषा-विज्ञानी भी इस स्थिति को स्वीकार करने लगे हैं. विविध यन्त्रों के सहारे उन्होंने ध्वनितरंगों और ध्वनिभागों को निश्चित करने का प्रयास किया है, पर इस विषय में कुछ निश्चित विभाजक रेखाएँ नहीं खींच सके हैं. 'अल्लाफोन्स' विषयक उनकी देन की चर्चा हो चुकी है. प्रो. जोसुटाव्हाटमाऊ, पोटर साइमन और दूसरे कुछ अमरीकी भाषाविदों ने 'साउण्ड-वेव' अर्थात् 'ध्वनि-तरंगों' को भी पहचानने का प्रयास किया है. पर अधिक अच्छा हो कि वे इन परिभाषाओं को विचार में रखकर बढ़ें.
१. विस्तृत चर्चा के लिये देखें लेखक के शोध-प्रबंध-भाषातत्व और वाक्यपदीय' के पृ० १७, तथा अनुच्छेद २४ (अ) एवं ७१०.
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