Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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बंशीधर : जैनदृष्टि से मनुष्यों में उच्च-नीच व्यवस्था का प्राधार : ४७५
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मान्यता के अनुसार सातों नरकों के संपूर्ण नारकियों में परस्पर तथा एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक की संपूर्ण तिर्यग्जातियों और इनकी उपजातियों में रहने वाले संपूर्ण तिर्यंचों में परस्पर उच्चता और नीचता का कुछ न कुछ भेद पाया जाने पर भी यदि सभी नारकी, नरकगति सामान्य की अपेक्षा और सभी तिर्यंच, तिर्यग्गति सामान्य की अपेक्षा नीच गोत्र-कर्म के उदय के आधार पर नीच माने जा सकते हैं तो, और इसी प्रकार भवनवासी व्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक नाम की संपूर्ण देव जातियों और इनकी उपजातियों में रहने वाले सम्पूर्ण देवों में परस्पर उच्चता और नीचता का कुछ न कुछ भेद पाया जाने पर भी यदि सभी देव देवगति सामान्य की अपेक्षा, उच्चगोत्र कर्म के उदय के आधार पर उच्च माने जा सकते हैं तो, फिर मनुष्यगति में रहने वाले संपूर्ण मनुष्यों में भी मनुष्य-गति सम्बन्धी विविध प्रकार की समानता रहते हुए अन्य ज्ञात साधनों के अभाव में केवल अज्ञात उच्चगोत्र-कर्म और नीचगोत्र-कर्म के उदय के आधार पर पृथक्-पृथक् क्रमशः उच्चता और नीचता का व्यवहार कैसे किया जा सकता है ? ये सब समस्याएँ हैं जिनका जब तक यथोचित समाधान प्राप्त नहीं हो जाता, तब तक जैन संस्कृति के अनुयायी होने पर भी हम लोगों के मस्तिष्क में मनुष्यों को लेकर उच्चता और नीचता संबन्धी संदेह पैदा होते रहना स्वाभाविक ही है. षट्खण्डागम के सूत्र १३५ का प्राचार्य श्रीवीरसेन स्वामी द्वारा किया गया जो व्याख्यान धवलाशास्त्र की पुस्तक १३ के पृष्ठ ३८८ पर पाया जाता है, उसे देखने से मालूम पड़ता है कि मनुष्यों की उच्चता और नीचता के विषय में आचार्य श्रीवीरसेन स्वामी के समय में भी विवाद था. इतना ही नहीं, आचार्य श्रीवीरसेन स्वामी के उस व्याख्यान से तो यहां तक भी मालूम पड़ता है कि उनके समय के कोई-कोई विचारक विद्वान् मनुष्यगति में माने गये उच्च और नीच उभयगोत्र कर्मों के उदय के सम्बन्ध में निर्णयात्मक समाधान न मिल सकने के कारण उच्च और नीच दोनों भेदविशिष्ट व समूचे गोत्र-कर्म के अभाव तक को मानने के लिये उद्यत हो रहे थे. आचार्य श्रीवीरसेन स्वामी का वह व्याख्यान निम्न प्रकार है : "उच्चर्गोत्रस्य क्व व्यापारः ? न तावद् राज्यादिलक्षणायां सम्पदि, तस्याः सद्वेद्यत: समुत्पत्तेः. नापि पंचमहाव्रतग्रहणयोग्यता उच्चैर्गोत्रेण क्रियते, देवेष्वभव्येषु च तद्ग्रहणं प्रत्ययोग्येषु उच्चर्गोत्रस्योदयाभावप्रसंगात्. न सम्यग्ज्ञानोत्पत्ती व्यापारः स्यात्, तत्र सम्यग्ज्ञानस्य सत्त्वात्. नादेयत्वे, यशसि, सौभाग्ये वा व्यापारः, तेषां नामतः समुत्पत्ते:. नेक्ष्वाकुकुलाद्युत्पत्ती, काल्पनिकानां तेषां परमार्थतोऽसत्त्वात्. विड्ब्राह्मणसाधुष्वपि उच्चैर्गोत्रस्योदयदर्शनात्. न सम्पन्नेभ्यो जीवोत्पत्तौ तद्व्यापारः, म्लेच्छराजसमुत्पन्नपृथुकस्यापि उच्चैर्गोत्रोदयप्रसंगात्. नाणुव्रतिभ्यः समुत्पत्तौ तद्व्यापारः, देवेष्वौपपादिकेषु उच्चैर्गोत्रोदयस्यासत्वप्रसंगात्. नाभेयस्य नीचगोत्रतापत्तेश्च. ततो निष्फलमुच्चैर्गोत्रम्. तत एव न तस्य कर्मत्वमपि. तदभावे न नीचैर्गोत्रमपि, द्वयोरन्योन्याविनाभावित्वात्. ततो गोत्रकर्माभाव इति."
इस व्याख्यान में प्रथम ही यह प्रश्न उठाया गया है कि जीवों में उच्चगोत्र-कर्म का क्या कार्य होता है ? इसके आगे उच्चगोत्र कर्म के कार्य पर प्रकाश डालने वाली तत्कालीन प्रचलित मान्यताओं का निर्देश करते हुए उनका खण्डन किया गया है और इस तरह उक्त प्रश्न का उचित समाधान न मिल सकने के कारण अंत में निष्कर्ष के रूप में गोत्रकर्म के अभाव को प्रस्थापित किया गया है. व्याख्यान का हिन्दी विवरण निम्न प्रकार है : "शंका- जीवों में उच्चगोत्र-कर्म का किस रूप में व्यापार हुआ करता है ? अर्थात् जीवों में उच्चगोत्र-कर्म का
कार्य क्या है ? १. समाधान....जीवों में उच्चगोत्र कर्म का कार्य उनको राज्यादि सम्पत्ति की प्राप्ति होना है. खण्डन - यह समाधान गलत है क्योंकि जीवों को राज्यादि संपत्ति की प्राप्ति उच्चगोत्र कर्म के उदय से न होकर
सातावेदनीय कर्म के उदय से ही हुआ करती है. २. समाधान-जीवों में पंच महाव्रतों के ग्रहण करने की योग्यता का प्रादुर्भाव होना ही उच्चगोत्र-कर्म का कार्य है.
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