Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
View full book text
________________
0-0--0-0-0--------
--
देवनारायण शर्मा : हिन्दू तथा जैनसाधु-परम्परा एवं प्राचार : ४४७ त्याज्य कहा है. वह भोजन यदि परम विशुद्ध तथा सभी दोषों से मुक्त हो और वह भी अन्य के द्वारा पाणिपात्र में ही दिया जाए तब मुनि उसे ग्रहण करे, ऐसा आचार्य का मत है. यति के द्वारा भिक्षा निमित्त हिंडन की ओर ग्रन्थकर्ता (आचार्य बट्टकेर) ने ध्यान आकृष्ट करते हुए यह स्पष्ट कह दिया है कि साधु विना यह जाने हुए अमुक स्थान में गृहस्थ उसकी प्रतीक्षा कर रहे होंगे, अतः वहां उसका स्वागत होगा तथा अमुक दिशा में उसकी उपेक्षा होगी, सामान्य रूप से घर के कतारों से उच्च-नीच, धनी, दरिद्र आदि को समान दृष्टि से देखता हुआ भिक्षा ग्रहण करे. उसके लिये शीतल, उष्ण, रुक्ष, स्निग्ध आदि का विना विचार किये ही अस्वादपूर्वक भोजन स्वीकार करना कर्त्तव्य है. क्योंकि मुनि इस पंचतत्त्व से निर्मित शरीर का धारण धर्म-पालन के निमित्त तथा धर्म पालन व मुक्ति-प्राप्ति-हेतु करता है. अत: भिक्षा-ग्रहण का एक मात्र लक्ष्य शरीर-धारण करना ही है
और कुछ नहीं. श्रमण मुनि न भिक्षा प्राप्त होने पर संतुष्ट और न उसकी अप्राप्ति को स्थिति में असंतुष्ट ही होता है. उसके लिये ये दोनों ही स्थितियाँ समान हैं. इस कारण वह सदा मध्यस्थ एवं अनाकुल रूप से विहार करता है. वह कभी भी किसी गृहस्थ से दीनतापूर्वक भिक्षा की याचना नहीं करता. ऐसी स्थिति में उसे खाली हाथ भी लौटना पड़ सकता है, पर वह निर्विकार चित्त कभी मौन भंग नहीं करता. वह भोजन स्वीकार करने के सम्बन्ध में बड़ी सावधानी रखता है. बासी, विवर्ण, तथा अप्रासुक अन्न उसे कभी ग्राह्य नहीं होता. साधु के उपर्युक्त प्रकार से भोजन, आचरणादि का वर्णन करते हुए आचार्य ने उसकी शास्त्रीय योग्यता पर भी जोर दिया है. उनके अनुसार साधु को केवल भोजन आदि की ही शुद्धि नहीं अपितु ज्ञान की शुद्धि भी रखनी चाहिए. विवेकी मुनि के लिये आचारांग, सूत्रकृतांग, स्थानांग आदि का ज्ञान होना आवश्यक है. वे यति के लिये, स्वभावतः आचार्य उपाध्याय आदि के उपदेशों को धारण-ग्रहण करने में समर्थ, तदनुसार अक्षरशः आचरण करने वाला, वीजबुद्धि (अर्थात् किसी भी विषय को एकाध बीजरूप प्रधान अक्षरों को सुन लेने पर ही समस्त रूप से समझने वाला), और श्रुतों में पारगामी विद्वान् होना अनिवार्य मानते हैं. पर इस ज्ञान-गरिमा के बाद भी श्रमण को मान-रहित, अवित, क्रोधरहित, मृदु स्वभावी, स्व-परसमयविद् एवं विनीत होना चाहिए, आचार्य का लक्ष्य यहाँ तक है. साधु के लिए शरीर का संस्कार निषिद्ध है. वह मुख, दांत, नयन, पैर आदि तक नहीं धोते, अर्थात् किसी तरह का भी बाह्यमार्जन उनके लिए विहित नहीं. यहां तक कि शरीर में यदि किसी तरह की कष्टकर व्याधि भी हो जाए, तब भी श्रमण-साधु उसे मौनपूर्वक सहन ही कर ले, पर किसी तरह की चिकित्सा न करावे यह आचार्य का मत है. साधु अपनी पूर्वावस्था में की गयी रति-क्रीड़ा अथवा धन-जन आदि के विविध भोगों का न स्मरण ही करे और न उसे दूसरों के प्रति कथन ही. उसके द्वारा किसी भी स्थिति में धर्म-विरोधी अथवा विनय-विहीन भाषा का प्रयोग निन्द्य है. साधु आँखों से देखता हुआ तथा कानों से सुनता हुआ भी मूक होकर विहार करे तथा कभी भी लौकिक कथाओं में प्रवृत्त न हो, यह आचार्य की आज्ञा है. आचार्य मुनि के लिये कठोर तपस्या के पक्षपाती हैं. वे संभवतया आत्मा के साक्षात्कार में इस शरीर के प्रति अनुरक्ति को ही प्रधान बाधा मानते हैं. इस कारण यथासंभव तप के द्वारा इस स्थूल शरीर को जर्जरित करते रहना ही आत्मबोध में सहायक सिद्ध हो सकता है, इस ओर उनका संकेत है. अब उपर्युक्तरूप से साधु-आचार के सम्बन्ध में राजर्षि मनु तथा आचार्य बट्टकेर के विचारों के अवलोकन के बाद यह स्पष्ट हो जाता है कि हिन्दू तथा जैन दोनों ही सम्प्रदायों के साधु अन्तः तथा बाह्य दोनों ही दृष्टियों से एक दूसरे के अत्यन्त सन्निकट है एवं परस्पर प्रभावित भी हैं. वस्तुतः सदाचरण और सहानुभूति ही साधु-जीवन के आधार-स्तम्भ एवं मानदण्ड हैं. ताकिक बुद्धि के द्वारा शास्त्रज्ञ किसी तथ्य का केवल ऊहापोह करता है. किन्तु उस ज्ञान को अपने जीवन में उतारना वह नहीं जानता. साधु उस ज्ञान को अपने जीवन का आदर्श बनाता है और अपना समग्र आचरण उसी भित्ति पर खड़ा करता है. यही कारण है कि इन साधुओं में वर्ग-भिन्नता रहने पर भी आचरण-भिन्नता केवल नाम मात्र की और ऊपरी ही होती है, वास्तविक नहीं.
Jain Education Intemational
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org