Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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४३४ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : द्वितीय अध्याय वाला मोहकर्म की प्रकृितयों के साथ अन्य कर्मों की भी अनेक प्रकृतियों का क्षय करता है. (10) सूचमसाम्परायगुणस्थान : इस गुणस्थान में परिणामों की प्रकृष्ट विशुद्धि के द्वारा मोहकर्म की जो एक सूक्ष्म लोभप्रकृत्ति शेष रह गई है, वह प्रतिसमय क्षीण-शक्ति होती जाती है. उसे उपशमश्रेणी वाला जीव तो अन्तिम समय उपशमन करके ग्यारहवें गुणस्थान में जा पहुँचता है और क्षपक श्रेणी वाला जीव क्षय करके बारहवें गुणस्थान में पहुँचता है. जिस प्रकार धुले हुए कसूमी रंग के वस्त्र में लालिमा की सूक्ष्म आभा रह जाती है, उसी प्रकार इस गुणस्थान के परिणामों द्वारा लोभकषाय क्षीण या शुद्ध होते हुए अत्यन्त सूक्ष्म रूप में रह जाता है, अत: इस गुणस्थान को सूक्ष्मसाम्पराय करते हैं. यहाँ साम्पराय का अर्थ लोभ है. इतना विशेष ज्ञातव्य है कि क्षपक श्रेणी वाला इस गुणस्थान के अन्तिम समय में सूक्ष्मलोभ के साथ अन्य कर्मों की भी अनेक प्रकृतियों का क्षय करता है. (११) उपशान्तकषाय वीतरागछद्मस्थगुणस्थान : दश गुणस्थान के अन्तमें सूक्ष्म लोभका उपशम होते ही समस्त कषायों का उपशमन हो जाता है और वह जीव उपशान्तकषायी बन कर ग्यारहवें गुणस्थान में आता है. जिस प्रकार गन्दले-जल में कतक-फल या फिटकरी आदि डालने पर उसका मलभाग नीचे बैठ जाता है और निर्मल जल ऊपर रह जाता है, उसी प्रकार उपशम श्रेणी में शुक्लध्यान से मोहनीयकर्म एक अन्तर्मुहूर्त के लिए उपशान्त कर दिया जाता है, जिससे कि जीव के परिणामों में एक दम वीतरागता, निर्मलता और पवित्रता आजाती है, इसी कारण उसे उपशान्तमोह या वीतराग संज्ञा प्राप्त हो जाती है. किन्तु अभी तक वह अल्पज्ञ ही है, क्योंकि ज्ञान का आवरण करने वाला कर्म विद्यमान है, अतः वह वीतराग होते हुए भी छद्मस्थ ही कहलाता है. मोहकर्म का उपशम एक अन्तर्मुहूर्त काल के लिए ही होता है, अतः उस काल के समाप्त होते ही इस जीव का पतन होता है और यह नीचे के गुणस्थानों में चला जाता है. (१२) क्षीणकषाय वीतरागछद्मस्थ गुणस्थान : क्षपक श्रेणी वाला जीव दशवें गुणस्थान के अन्त में सूक्ष्म लोभ का क्षय करके एकदम बारहवें गुणस्थान में जा पहुँचता है. इस गुणस्थान में शुक्लध्यान का दूसरा भेद प्रकट होता है. उसके द्वारा वह ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तराय इन तीन घातिक कर्मों का क्षय करता है. मोहकर्म का क्षय तो दशवें गुणस्थान के अन्त में ही हो चुका था. इस प्रकार चारों घातिक कर्मों का क्षय होते ही वह कैवल्यदशा को प्राप्त करता हुआ तेरहवें गुणस्थान में प्रवेश करता है. (१३) सयोगिकेवली गुणस्थान : बारहवें गुणस्थान तक ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय कर्म का सद्भाव रहने से जीव अल्पज्ञ ही रहता है अतः वहाँ तक के जीवों की छद्मस्थ संज्ञा है. किन्तु बारहवें गुणस्थान के अन्त में उन कर्मों का एक साथ क्षय होते ही जीव विश्व के समस्त चराचर तत्त्वों को हस्तामलकवत् स्पष्ट देखने और जानने लगता है. अर्थात् वह विश्वतत्त्वज्ञ और विश्वदर्शी बन जाता है, इसे ही अरहन्त अवस्था कहते हैं. केवल ज्ञान की प्राप्ति हो जाने के कारण उसे केवली भी कहते हैं. योग अभी तक बना हुआ है, अतः इस गुणस्थान का नाम सयोगीकेवली है. इस गुणस्थान में चार घातिया कर्मों के नाश से अरहन्त भगवान् के नव केवल लब्धियाँ प्रकट हो जाती हैं. ज्ञानावरण कर्म के क्षय से अनन्त ज्ञान, दर्शनावरण के क्षय से अनन्त दर्शन, मोहकर्म के क्षय से अनन्तसुख और क्षायिक सम्यक्त्व, अन्तरायकर्म के क्षय से अनन्त दान, लाभ, भोग, उपभोग और अनन्तवीर्य की प्राप्ति होती है. कैवल्य की प्राप्ति होने पर समवसरण-विभूति और अष्ट महाप्रतिहार्य भी प्रकट होते हैं. और अरहन्त भगवान् विहार करते हुए भव्य जीवों को अपने जीवनपर्यन्त मोक्षमार्ग का उपदेश देते रहते हैं. इस गुणस्थान का जघन्य काल अन्तर्मुहुर्त है और उत्कृष्टकाल आठ वर्ष एवं अन्तर्मुहूर्त कर्म एक पूर्वकोटी वर्ष है. जब तेरहवें गुणस्थान के काल में एक अन्तर्मुहुर्त मात्र समय शेष रह जाता है और केवली भगवान् की अन्तर्मुहूर्त प्रमाण आयु से शेष अघातिया कर्मों की स्थिति अधिक रहती है तब उनकी स्थिति के समीकरण के लिए तीसरा शुक्लध्यान प्रकट होता है और भगवान् केवलीसमुद्घात करते हैं. प्रथम समयमें चौदह राजुप्रमाण लम्बे दण्डाकार आत्मप्रदेश फैलते हैं. दूसरे समय में कपाट के आकार के आत्मप्रदेश चौड़े हो जाते हैं. तीसरे समय में प्रतर के आकार में
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