Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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४३८ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : द्वितीय अध्याय प्रो० मार्गेनो ने कन्स्ट्रक्ट्स के सिद्धांत का निरूपण करके यह बताया है कि ज्ञाता और ज्ञेय पदार्थ दोनों कास्व तन्त्र अस्तित्व है. अभौतिक वास्तविकता को भी वे स्वीकार करते हैं. इस प्रकार जैन-दर्शन के साथ इनकी विचारधारा का काफी सामंजस्य प्रतीत होता है. मार्गेनो की विचारधारा में ज्ञान मैमासिक विश्लेषण के द्वारा ज्ञाता और ज्ञेय पदार्थ की वास्तविकता के विषय में चिन्तन किया गया है. और वह विचारधारा समीक्षात्मक वास्तविकतावाद (Critical realism) के निकट चली जाती है. समीक्षात्मक वास्तविकताबाद के अनुसार ज्ञान-प्रक्रिया में तीन तत्त्व होते हैं : १. ज्ञाता (known of mind), २. ज्ञेय (object as it is), ३. ज्ञात पदार्थ (object as known) 'ज्ञाता' ज्ञान करनेवाला है. जिस वस्तु का ज्ञान होता है, उसी को 'ज्ञेय पदार्थ' कहते हैं. मन या ज्ञाता की चेतना के समक्ष जो पदार्थ विद्यमान रहता है, उसीको 'ज्ञात' पदार्थ कहते हैं, उसे प्रदत्त (Datum) भी कहते हैं. क्योंकि ज्ञाता को यही प्राप्त होता है. वास्तविक वस्तु नहीं मिलती. यह सिद्धांत वास्तविक वस्तु और ज्ञात वस्तु दोनों में द्वैत या भिन्नता मानता है, इसलिए इसे ज्ञान-शास्त्रीय-द्वैतवाद (Epigtemological dualism) कहते हैं.' इस प्रकार इसके अनुसार ज्ञेय पदार्थ और ज्ञात पदार्थ में संख्यात्मक भिन्नता (Numerical duality) तो होती है. किन्तु इन प्रदत्तों के द्वारा पदार्थ वस्तुओं का प्रत्यक्ष ज्ञान होता है. क्योंकि हम प्रदत्तों को नहीं देखते. बल्कि चश्मे की तरह उनके माध्यम से वस्तुओं को देखते हैं. अब देखा जा सकता है कि जैनदर्शन की विचारधारा इसके समीप हैं. जैन-दर्शन ज्ञेय पदार्थ को स्वतंत्र वास्तविकता के रूप में स्वीकार करता है. ज्ञाता का भी स्वतंत्र वास्तविक अस्तित्व मानता है 'ज्ञात पदार्थ' ज्ञेय पदार्थ से संख्यात्मक भिन्नता रखता है. ज्ञानप्रक्रिया में दो प्रकार के साधनों का उपभोग होता हैऐन्द्रिय और अनीन्द्रिय. ऐन्द्रिय साधनों द्वारा ज्ञात पदार्थ ज्ञेय पदार्थ से न केवल संख्यात्मक भिन्नता रखता है बल्कि इनमें स्वरूपात्मक भिन्नता भी होनी संभव है. हाँ, यह ज्ञात-पदार्थ ज्ञेय पदार्थ और ऐन्द्रिय उपकरणों के पारस्परिक सम्बन्धों के अनुरूप ही होता है. गणित की भाषा में इसे कहें तो यदि 'अ' ज्ञेय पदार्थ है और 'ब' ऐन्द्रिय साधनों द्वारा ज्ञात पदार्थ है तो ब-फ (अ ऐन्द्रिय सम्बन्ध)' होता है. इस प्रकार हमारे ज्ञान में आने वाला विश्व वास्तविक विश्व में यह 'द्वत' हो जाता है. अब, जहाँ अतीन्द्रिय साधनों द्वारा ज्ञान प्राप्त होता है, वहाँ ज्ञात पदार्थ और ज्ञेय पदार्थ में संख्यात्मक द्वैत तो रहता है, किन्तु स्वरूपात्मक द्वैत तो नहीं रहता. अर्थात् यदि 'क' अतीन्द्रिय साधनों द्वारा ज्ञात पदार्थ है तो 'क-अ' होता है. इस विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि जैनदर्शन और समीक्षात्मक वास्तविकतावाद में बहुत कुछ सादृश्य है, किन्तु थोड़ा अन्तर भी है ; दूसरा जहाँ प्रदत्त (Datum)और यथार्थ वस्तु में स्वरूपात्मक भिन्नता को स्वीकार नहीं करता, वहां, जनदर्शन उसकी संभवता को स्वीकार करता है. दूसरी बात यह है कि प्रदत्तों को जैन-दर्शन में कोई स्वतंत्र वास्तविकता के रूप में स्वीकार नहीं किया गया है, किन्तु वह वस्तुतः ज्ञाता का ही एक अंग बन जाता है. हाँ, उसका स्वरूप 'ज्ञेय-पदार्थ' पर आधारित अवश्य होता है. ऐसा मानने से जो दोष समीक्षात्मक वास्तविकतावाद में आते हैं, जैनदर्शन की विचारधारा उनसे मुक्त रह जाती है. वैज्ञानिकों में अनेक ऐसे हैं, जो अनेकतत्त्वात्मक वास्तविकतावाद को स्वीकार करते हैं. प्राचीन युग में न्यूटन ने स्पष्ट रूप से भूत और चेतन के स्वतंत्र अस्तित्व को स्वीकार किया था, आधुनिक युग में हाईसन वर्ग व्ही हॉकर आदि भी पदार्थ के वस्तुसापेक्ष अस्तित्व को स्वीकार करते हैं. हाईसनवर्ग का स्थान वर्तमान वैज्ञानिकों में प्रथम श्रेणी में है. उन्होंने अपने 'भौतिक विज्ञान और दर्शन' नामक ग्रन्थ में आधुनिक विज्ञान के दर्शन की जो चर्चा की है, उसके
१. दर्शनशास्त्र की रूपरेखा, पृ० ३४५. २. (फलक) (Function) का चिह्न है. ३. विवरण के लिए देखें, दर्शन-शास्त्र की रूपरेखा, पृ० ३४७-३४८.
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