Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
View full book text
________________
पं० हीरालाल जैन : गुणस्थान : ४३३
----------------
सातव गुणस्थान के दो भेद हैं-१ स्वस्थान-अप्रमत्त और २ सातिशय अप्रमत्त. सातवें से छठे में और छठे से सातवें गुणस्थान में आना जाना स्वस्थान-अप्रमत्तसंयत के होता है. किन्तु जो साधु मोहनीय कर्म का उपशम या क्षय करने के लिए उद्यत होते हैं, सातिशय अप्रमत्त दशा उन्हीं साधुओं की होती है. उस समय ध्यान अवस्था में ही मोहनीय कर्म के उपशमन या क्षपण के कारणभूत अधःकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्ति करण नाम वाले एक विशिष्ट जाति के परिणाम जीव में प्रकट होते हैं, जिनके द्वारा यह जीव मोहनीय कर्म का उपशनम या क्षपण करने में समर्थ होता है. इनमें से अधःकरण रूप विशिष्ट परिणाम सातिशयअप्रमत्तसंयत के अर्थात् सातवें गुणस्थान में ही प्रकट होते हैं. इन परिणामों के द्वारा वह संयत मोह कर्म के उपशय या क्षय के लिए उत्साहित होता है. आगे के गुणस्थानों का स्वरूप जानने से पहले यह जान लेना आवश्यक है कि आठवें गुणस्थान से दो श्रेणियाँ प्रारम्भ होती हैं.-उपशमश्रेणी और क्षपकश्रेणी. उपशमश्रेणी के ४ गुणस्थान हैं: आठवाँ, नौवा, दशवां और ग्यारहवाँ. क्षपकश्रेणी के भी ४ गुणस्थान हैं-आठवाँ, नौवाँ, दशवाँ और बारहवां क्षपकश्रेणी पर केवल तद्भवमोक्षगामी क्षायिक सम्ग्यदृष्टि साधु ही चढ़ सकता है, अन्य नहीं. किन्तु उपशमश्रेणी पर तद्भवमोक्षगामी और अतद्भवमोक्षगामी तथा औपशमिक सम्यग्दृष्टि और क्षायिक सम्यग्दृष्टि दोनों प्रकार के जीव चढ़ सकते हैं. किन्तु इतना निश्चित जानना चाहिए कि उपशमश्रेणी पर चढ़ने वाला साधु ग्यारहवें गुणस्थान में पहुँच कर और अन्तर्मुहूर्त के लिए मोहनीयकर्म का पूर्ण उपशमन करके वीतरागता का अनुभव करने के पश्चात् भी नियम से नीचे गिरता है. यदि वह संभलना चाहे तो छठेसातवें गुणस्थान में ठहर जाता है, अन्याथा नीचे के भी गुणस्थानों में जा सकता है. किन्तु जो तद्भवमोक्षगामी और क्षायिक सम्यग्यदृष्टि जीव हैं, वे सातवें गुणस्थान में पहुंच कर फिर भी मोहकर्म की क्षपणा के लिये प्रयत्न करते हैं और आठवें गुणस्थान में पहुँचते हैं. इसलिए आगे दोनों श्रेणियों के गुणस्थानों का स्वरूप एक साथ कहा जायगा. () अपूर्वकरण-संयतगुणस्थान : जब कोई सातिशय अप्रमत्त संयत मोहकर्म का उपशमन या क्षपण करने के लिए अधःकरण परिणामों को करके इस गुणस्थान में प्रवेश करता है, तब उसके परिणाम प्रत्येक क्षण में अपूर्व-अपूर्व ही होते हैं. प्रत्येक समय उसके परिणामों की विशुद्धि अनन्तगुणी होती जाती है. इस गुणस्थान के परिणाम इसके पहले कभी नहीं प्राप्त हुए थे, अत: उन्हें अपूर्व कहते हैं. इस गुणस्थान में अनेक जीव यदि एक साथ प्रवेश करें, तो उनमें से एक समयवर्ती कितने ही जीवों के परिणाम तो परस्पर समान होंगे और कितने ही जीवों के परिणाम असमान रहेंगे. परन्तु आगे-आगे के समयों में सभी जीवों के परिणाम अपूर्व और अनन्तगुणी विशुद्धि को लिए हुए होते हैं, इसीलिए इस गुणस्थान का नाम अपूर्वकरण है. इस गुणस्थान का कार्य मोहकर्म के उपशमन या क्षपण की भूमिका तैयार करना है. यद्यपि इस गुणस्थान में मोहकर्म की किसी भी प्रकृति का उपशम या क्षय नहीं होता है, तथापि मोहकर्म के स्थितिखण्डन अनुभाग आदि कार्य प्रारम्भ हो जाते हैं.
(8) अनिवृत्तिकरण-संयतगुणस्थान : आठवें गुणस्थान में अन्तर्मुहूर्त काल रह कर और अपूर्व-अपूर्व विशुद्धि को प्राप्त हो, विशिष्ट आत्म-शक्ति का संचय करके यह जीव नौवें गुणस्थान में प्रवेश करता है. इस गुणस्थान के प्रत्येक समयवर्ती जीवों के परिणाम यद्यपि उत्तरोत्तर-अपूर्व और अनन्तगुणी विशुद्धि वाले होते हैं, किन्तु एक समयवर्ती जीवों के परिणाम सदृश ही होते हैं, उनमें निवृत्ति या विषमता नहीं पाई जाती है, अतः उन परिणामों को अनिवृत्तिकरण करते हैं. इस गुणस्थान में होने वाले परिणामों के द्वारा आयुकर्म को छोड़कर शेष सात कर्मों की गुणश्रेणी, निर्जरा, गुणसंक्रमण, स्थिति खण्डन और अनुभागखण्डन होता है. अभी तक जो करोड़ों सागरों की स्थिति वाले कर्म बंधते चले आ रहे थे उनका स्थितिबन्ध उत्तरोत्तर कम-कम होता जाता है, यहाँ तक कि इस गुणस्थान के अन्तिम समय में पहुँचने पर कर्मों की जो जघन्य स्थिति बतलायी गयी है, तत्प्रमाण स्थिति के कर्मों का बन्ध होने लगता है. कर्मों के सत्व का भी बहुत परिमाण में ह्रास होता है. प्रतिसमय कर्मप्रदेशों की निर्जरा असंख्यातगुणी बढ़ती जाती है. उपशमश्रेणी वाला जीव इस गुणस्थान में मोहकर्म की एक सूक्ष्म लोभप्रकृत्ति को छोड़ कर शेष सर्वप्रकृतियों का उपशमन कर देता है और क्षपक श्रेणी वाला जीव उन्हीं का क्षय करके दशवें गुणस्थान में प्रवेश करता है. यहाँ इतना विशेष ज्ञातव्य है कि क्षपकश्रेणी
MOD
ప్రతులు నిలు నిలు నందు
DDHAR
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org