Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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पं० हीरालाल जैन सिद्धान्तशास्त्री, न्यायतीर्थ
गुणस्थान
अनादि काल से यह जीव अज्ञान के वशीभूत होकर विषय और कषाय में प्रवृत्ति करता हुआ संसार में परिभ्रमण करता चला आ रहा है, यद्यपि अपने इस परिभ्रमण-काल में जीव ने चौरासी लाख योनियों के अनन्त उतार-चढ़ाव देखे हैं, पुण्य का उपार्जन कर मनुष्य और देवों के दिव्य सुखों को भी भोगा है और पाप का संचय कर नाटकों और पशुपक्षियों के महान् दुःखों का भी अनुभव किया है, तथापि आज तक अपने आत्म-स्वरूप का साक्षात्कार या यथार्थ ज्ञान नहीं हो सकने से भव-बन्धनों से मुक्ति पाने के लिये प्रयत्न करने पर भी वह सफल नहीं हो सका है. आत्म-स्वरूप का दर्शन नहीं हो सकने के कारण इस जीव की दृष्टि अनादि से ही विपरीत हो रही है और उसी के कारण आत्मा से भिन्न परपदार्थों को यह अपना मानकर उन्हीं की प्राप्ति के लिये अहर्निश प्रयत्न करता रहता है और इच्छानुसार उनके प्राप्त नहीं हो सकने से आकुल-व्याकुल रहता है. जीव की इस विपरीत दृष्टि के कारण ही जैन शास्त्रकारों ने उसे मिथ्यादृष्टि या बहिरात्मा कहा है. बहिरात्मा अपनी मिथ्यादृष्टि को छोड़कर किस प्रकार अन्तरात्मा या यथार्थ दृष्टिवाला समयग्दृष्टि बनता है और किस प्रकार आगे आत्म-विकास करते हुए परमात्मा बन जाता है, उसके इस क्रमिक विकास के सोपानों का नाम ही गुणस्थान है. बहिरात्मा ने परमात्मा बनने के लिये आत्मिक गुणों की उत्तरोत्तर प्राप्ति करते हुए इस जीव को जिन-जिन स्थानों से गुजरना पड़ता है उन्हें ही जैन-शास्त्रों में 'गुणस्थान' कहा है. गुणस्थानों के चौदह भेद हैं, जो इस प्रकार हैं : १ मिथ्यादृष्टि, २ सासादन सम्यग्दृष्टि, ३ सम्यग्मिथ्यादृष्टि, ४ अधिरत-सम्यग्दृष्टि, ५ देशसंयत, ६ प्रमत्तसंयत, ७ अप्रमत्तसंयत, ८ अपूर्वकरण संयत, ६ अनिवृत्तिकरण संयत, १० सूक्ष्मसाम्पराय संयत, ११ उपाशान्त कषाय संयत, १२ वीतरागछद्मस्थ संयत, १३ सयोगिकेवली गुणस्थान और १४ अयोगिकेवली गुणस्थान. (१) मिध्यादृष्टि गुणस्थान : जब तक जीव को आत्मस्वरूप का दर्शन नहीं होता तब तक वह मिथ्यादृष्टि कहलाता है. संसार के बहुभाग प्राणी इसी प्रथम गुणस्थान की भूमिका में रह रहे हैं. ये मिथ्यादृष्टि जीव शरीर की उत्पत्ति को ही आत्मा की उत्पत्ति और शरीर के मरण को ही आत्मा का मरण मानते हैं. शरीर की सुरूपता-कुरूपता और सबलतानिर्बलता को ही अपना स्वरूप मानते हैं. पुण्य-पाप के उदय से होने वाली इन्द्रियजनित सुख-दुख की परिणति को ही आत्मस्वरूप मानते हैं और इसी कारण इष्ट-वियोग या अनिष्ट-संयोग के होने पर वे असीम दुःखों का अनुभव करते रहते हैं. जब किसी सुगुरु के निमित्त से इस मिथ्यादृष्टि जीवको आत्म-स्वरूपका उपदेश प्राप्त होता है, तब इसकी कषाय मंद होती है, आत्म-परिणामों में विशुद्धि बढ़ती है और यह आत्म स्वरूप को प्राप्त करने के लिये उद्यत होता है. आत्म-परिणामों की विशुद्धि के कारण इसके अनादि काल से लगे हुए कर्मों का उदय भी मन्द होता है, नवीन कर्मों का बन्ध भी बहुत हलका हो जाता है और राग-द्वेष की परिणति भी धीमी पड़ती है. ऐसे समय में ही यह जीव करण-लब्धि के द्वारा अपने अनादिकालीन मिथ्यात्वरूप महामोह का अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया और लोभरूप तीव्र कषायों का उपशमन करके सच्ची आत्म-दृष्टि को प्राप्त करता है अर्थात् आत्म-साक्षात्कार करता है. इस अवस्था को ही शास्त्रीय भाषा में
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