Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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सुरेश मुनि : अनेकान्त : ३५१ अपनी-अपनी न तानते, तो कोई बात ही न होती, संघर्ष की नौबत ही न आ पाती. अनेकान्तवाद परस्पर में संघर्ष उत्पन्न कराने वाली 'ही' का उन्मूलन करके उसके स्थान पर 'भी' का प्रयोग करने की बलवती प्रेरणा प्रदान करता है. अनेकान्त कानेपन को मिटाता है :-जैन-दर्शन की अनेकान्तदृष्टि मानव-मन को यही प्रकाश देती है कि मनुष्य को दो आखें मिली हैं. अतः एक आँख से वह अपना, तो दूसरी से विरोधियों-दूसरों का सत्य देखे. जितनी भी वचनपद्धतियां अथवा कथन के प्रकार हैं, उन सब का लक्ष्य सत्य के दर्शन कराना है. जैसे द्वितीया के चन्द्रमा का दर्शन करने वाले व्यतिक्यों में से कोई एक तो ऐसा बतलाता है कि--"चन्द्रमा उस वृक्ष की टहनी से ठीक एक बित्ता ऊपर है." दूसरा व्यक्ति कहता है-"चन्द्रमा इस मकान के कोने से सटा हुआ है." तीसरा बोलता है-"चन्द्रमा उस उड़ते पक्षी के दोनों पंखों के बीच में से दीख रहा है." चौथा व्यक्ति संकेत करके कहता है-"चन्द्रमा ठीक मेरी अंगुली के सामने नजर आ रहा है." इन सभी व्यक्तियों का लक्ष्य चन्द्र-दर्शन कराने का है. और वे अपनी साफ नीयत से ही, अपनीअपनी प्रक्रिया बतला रहे हैं. पर एक-दूसरे के कथन में परस्पर आकाश-पाताल का अन्तर है. ठीक इसी प्रकार सत्य-गवेषी दार्शनिक विचारकों का एक ही उद्देश्य है—साधकों को सत्य का साक्षात्कार कराना. सब अपने-अपने दृष्टि-बिन्दु से सत्य की व्याख्या कर रहे हैं. परन्तु, उनके कथन में भेद है. 'अनेकान्त' की सतेज आँख से ही उन तथ्यांशों के प्रकाश को देखा-समझा जा सकता है. वस्तुतः अनेकान्तवाद सत्य का सजीव भाष्य है. यह सत्य की खोज करने और पूर्ण सत्य की मंजिल पर पहुँचने के लिए प्रकाशमान महा मार्ग है. दूसरे शब्दों में, जैन-दर्शन का अनेकान्त-विचार, सब दिशाओं से खुला हुआ वह दिव्य मानस-नेत्र है, जो अपने से ऊपर उठकर दूर-दूर तक के तथ्यों को देख लेता है. अनेकान्त में एकांगिता तथा संकीर्णता को पैर टेकने के लिए ज़रा भी स्थान नहीं है. यहाँ तो मन का तटस्थ-भाव एवं हृदय की उदारता ही सर्वोपरि मान्य है. यहाँ स्व-दृष्टि नगण्य है, हेय है और सत्य-दृष्टि प्रधान है, उपादेय है. जो भी सच्चाई है, वह मेरी है, चाहे वह किसी भी जाति, व्यक्ति अथवा शास्त्र में क्यों न हो--यह ज्योतिष्मती दिशा है, अनेकान्त के महान् सिद्धान्त की. अनेकान्तवाद का आदर्श है कि, सत्य अनन्त है. हम अपने इधर-उधर चारों ओर से जो कुछ भी देख-जान पाते हैं, वह सत्य का पूर्ण रूप नहीं, प्रत्युत अनन्त सत्य का स्फुलिंग है, अंश-मात्र है. अत: जैन-धर्म की अनेकान्त-धारा, मनुष्य को सत्य-दर्शन के लिए आंखें खोलकर सब ओर देखने की दूरगामी प्रेरणा प्रदान करती है. उसका कहना है कि, सारे संसार को तुम अपने ही विचार की आँखों से मत देखो-परखो. दूसरे को हमेशा उसकी आँख से देखिए, उसके दृष्टिकोण से परखिए. सत्य वही और उतना ही नहीं है जो-जितना आप देख पाए हैं. फिर भी यह तो सम्भव है कि हाथी के स्वरूप का वर्णन करने वाले वे छहों अन्धे व्यक्ति अपने-आप में शत-प्रतिशत सच्चे होकर भी इसलिए अधूरे हों कि एक ने हाथी को देखा था सूंड की तरफ से, दूसरे ने पूंछ की तरफ से, तीसरे ने देखा था पेट छूकर, चौथे ने देखा था कान पकड़ कर, पाँचवें ने देखा था दांतों की ओर से और छठे ने पांव की तरफ से. जीवन के इस कानेपन को, एकांगी सत्य को देखने की वृत्ति को ही तो दूर करता है—अनेकान्तवाद ! काना व्यक्ति एक ओर के सत्य को ही देख सकता है. सत्य का दूसरा पहलू, वस्तुतत्त्व की दूसरी करवट उसकी आँख से लुप्त ही रहती है ! एक पुरानी लोक-कथा है. किसी मां का काना बेटा हरद्वार गया. लौटा तो मां ने पूछा-हरद्वार में तुझे सब से अच्छा क्या लगा रे ? कौन-सी नयी चीज देखी तूने वहाँ पर? गांव के भोले बेटे ने तब तक कहीं बाजार देखा नहीं था ! बोला : मां, मैंने नयी बात यही देखी कि हरद्वार का बाजार घूमता है. माँ हरद्वार हो आई थी. चौंक कर उसने पूछा : कैसे घूमता है रे हरद्वार का बाजार ? बेटे ने नए सिरे से आश्चर्य में डूबकर कहा : मां, जब मैं हर की पैड़ी नहाने गया तो बाजार इधर था और नहाकर लौटा तो देखा–बाजार उधर हो गया.
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