Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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रतनलाल संघवी : भारतीय दर्शनों में आत्मवाद : ३६६
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है, तब तक वह अन्तभूर्ख नहीं है. इस स्थिति को 'बहिरात्म' स्थिति कहते हैं. इसे मिथ्यात्व-अवस्था भी कहा गया है. इसकी तीन श्रेणियाँ विचार-भेद से कही गई हैं, इनके पारिभाषिक नाम प्रथम, द्वितीय और तृतीय गुणस्थान हैं. इन गुण स्थानों की भी अवान्तर रूप से असंख्यात श्रेणियाँ हैं, क्योंकि इन गुणस्थानों में पाई जाने वाली अनंतानंत आत्माएँ हैं, जिनकी विचार-श्रेणियाँ अथवा अध्यवसायस्थान अ संख्यात हैं, तदनुसार उपर्युक्त तीनों गुणस्थानों में भी अवान्तर श्रेणियों की संख्या भी असंख्यात प्रकार की हो सकती है. अनंतानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ, सम्यक्त्वमोहनीय, मिश्रमोहनीय, एवं मिथ्यात्वमोहनीय कर्म की प्रकृतियों का उपशम, क्षय अथवा क्षयोपशम होने पर आत्मा में बाह्य-भावना के स्थान पर आंतरिक भावना की जागृति होती है, ऐसी आत्माओं की श्रद्धा और रुचि ईश्वर, मोक्ष, ज्ञान, दर्शन, चारित्र की ओर होनी प्रारंभ हो जाती है, सांसारिक भोगों के प्रति उदासीनता हो जाती है, इस स्थिति को 'अन्तरात्मभाव' कहते हैं. यह विकास की सीढी है, आध्यात्मिकता की नींव है इसे ही जैनदर्शन में 'सम्यक्त्व' कहते हैं. यह स्थिति चौथे गुणस्थान से प्रारम्भ होकर वारहवें गुणस्थान तक रहती है. इस स्थिति में विभिन्न आत्माओं की प्रगति विभिन्न प्रकार की होती है, क्योंकि प्रत्येक आत्मा की विचार-धारा अलग-अलग होती है. आध्यात्मिक-अध्यवसायों की श्रेणियां असंख्यात प्रकार की हैं, तदनुसार चौथे गुणस्थान से वारहवें गुणस्थान तक के अवान्तर भेदों की संख्या भी असंख्यात प्रकार की हैं, परन्तु फिर भी प्रमुख श्रेणियां दो प्रकार की कही गई हैं:कुछ आत्माएं ऐसी होती हैं जिनकी विचार-धारा भाबुक मात्र होती है. उनकी कषाय-भावनाएं, विषम-वासनाएं, धनमूढ़ता आदि तामस वृत्तियां मूल से क्षीण नहीं होती हैं, किन्तु वातावरण तथा कुछ बाह्य संयोगों से दब जाती हैं. इनका बीज तथा इनकी विशालता ज्यों की त्यों अव्यक्त रूप में भीतर छिपी रहती है. केवल वाह्य रूप से शांति दिखाई देती है इसे जैन-दर्शन में "उपशम अवस्था" कहा गया है. इस अवस्था के विपरीत जिन आत्माओं में कषाय, वासना, मोह, मूढ़ता आदि तामस तथा राजस वृत्तियां जड़-मूल से क्षीण हो जाती हैं, जिनके पुनः उदय होने की अथवा पुन: विकसित होने की कोई संभावना नहीं रहती है, ऐसी आत्माएँ ही वास्तव में पूर्ण विकास कर सकती हैं. ऐसी स्थिति को जैन-दर्शन में 'क्षय अवस्था' कहा गया है. उपरोक्त दोनों प्रकार की अवस्थाओं के लिये पारिभाषिक संज्ञा क्रम से 'औपशमिक सम्यक्त्व' तथा 'क्षायिक सम्यक्त्व' है. क्षायिक सम्यक्त्व का उत्कृष्तम विकास क्रमश: बारहवें, तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान में होता है. इस प्रकार अन्तरात्मभाव दो मार्गों से विकास को प्राप्त होता है, एक उपशममार्ग से और दूसरा क्षयमार्ग से. उपशममार्ग से चलने वाली आत्मा अधिक से अधिक न्यारहवें गुणस्थान तक जाकर लौट जाती है. इस प्रकार उपशममार्गी आत्मा बहिरात्म-भाव तथा अन्तरात्म-भाव में ही चक्कर लगाया करती है और आगे नहीं बढ़ पाती है, किन्तु क्षायिक मार्गगामी आत्मा अन्तरात्म-भाव द्वारा आगे विकास करती हुई अपने मूल स्वरूप की ओर बढ़ती ही चली जाती है. और 'परमात्म-भाव' को प्राप्त कर लेती है. इस अवस्था को जन-शास्त्रों में तेरहवां तथा चौदहवाँ गुणस्थान कहा गया है. इस अवस्था को प्राप्त आत्मा पूर्ण रूप से ‘कृतकृत्य' हो जाता है और सदैव के लिए अपने परमध्येय ईश्वरत्व को प्राप्त कर लेता है. जैन-दर्शन में यही 'अरिहंत' अवस्था कहलाती है. यह अवस्था परिपूर्ण परमात्मतत्त्व की या सिद्ध-स्वरूप की ही पूर्ववर्ती पर्याय है. भारनीय दर्शनों के अनुसार इसे ही 'आत्मा की पूर्णता' कहते हैं. इस प्रकार आत्मा की तीन स्थितियाँ बतलाई गई हैं, (१) बहिरात्म-भाव, (२) अन्तरात्म-भाव और (३) परमात्मभाव. अन्तरात्म-भाव से परमात्म-भाव की ओर बढ़ते-बढ़ते आत्मा को अनेक स्थितियों में से गुजरना पढ़ता है. सबसे प्रथम तो मोह की जो दुर्भेद्य ग्रन्थि है, उसको तोड़ना पड़ता है. इस ग्रंथि को तोड़े विना आगे आत्मा बढ़ ही नहीं सकता है. इसे तोड़ने के लिए महान् आध्यात्मिक प्रयत्न करना पड़ता है. ऐसी आत्मा को हृदय में विकसित तामस एवं राजस वृत्तियों से घोर संघर्ष करना पड़ता है. जबर्दस्त रस्सा-कशी चलती है. इस संघर्ष में अनिष्ट वृत्तियां तो
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