Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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अपने मूलभूत सिद्धान्तों के वैशिष्ट्य के कारण जैनदर्शन भारतीय दर्शनों में अपना विशिष्ट महत्त्व रखता है. जैनदर्शन के अनुसार वेदों को पौरूषेय माना गया है तथा जैनदर्शन ईश्वर को सृष्टिकर्ता स्वीकार नहीं करता. यही कारण है कि उस पर नास्तिकता का आरोप किया है. जैनदर्शन के समान बौद्धदर्शन एवं चार्वाकदर्शन भी वेदों को प्रमाण स्वीकार नहीं करते. अतः उनकी गणना भी नास्तिक दर्शनों में की गई है. किन्तु जैनदर्शन में अनेक ऐसे सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया गया है जिनके आधार पर उसकी आस्तिकता स्वतः ही सिद्ध हो जाती है. उन्हीं सिद्धान्तों में से एक 'कर्म सिद्धान्त' भी है. वैसे तो कर्म - सिद्धान्त को अन्य षड्दर्शन के साथ बौद्ध दर्शन ने भी स्वीकार किया है, किन्तु अपनी विशेषताओं के कारण जैनदर्शन द्वारा प्रतिपादित 'कर्म सिद्धान्त' अपना विशेष महत्त्व रखता है. जैन ग्रंथों में कर्म सिद्धान्त का जैसा सांगोपांग, तर्कसंगत और वैज्ञानिक विवेचन मिलता है, अन्यत्र कहीं भी दृष्टिगोचर नहीं होता.
श्रीराजकुमार जैन, दर्शनायुर्वेदाचार्य
कर्म स्वरूप और बंध
कर्मसिद्धान्त सम्बन्धी विषय इतना गहन एवं विस्तृत है कि एक छोटे से निबंध में उसका सम्पूर्णतः प्रतिपादन सम्भव नहीं है अतः सामान्यतः कर्म क्या है और उसका आत्मा के साथ कैसे और क्यों सम्बन्ध होता है ? इसका अत्यन्त संक्षिप्त स्वरूप प्रस्तुत लेख में प्रतिपादित करने का प्रयास किया गया है.
जैनदर्शन के अनुसार प्रत्येक संसारी आत्मा कर्मों से बद्ध है. कर्म के पाश में आत्मा वैसे ही बंधी हुई है, जैसे जंजीरों से किसी को बांध दिया जाता है. यह कर्मबन्धन आत्मा को किसी अमुक समय में नहीं हुआ. अपितु अनादिकाल से है. जैसे -- खान से सोना शुद्ध नहीं निकलता अपितु अनेक मलों (अशुद्धियों) से युक्त निकलता है, वैसे ही संसारी आत्माएँ भी कर्मबन्धनों से जकड़ी हुई ही रही हैं. यदि आत्माएं किसी भूतकाल में शुद्ध होती तो फिर उनके कर्म बन्धन नहीं हो सकता. क्योंकि शुद्ध आत्मा मुक्त होता है. आत्मा की मुक्ति के अनन्तर कर्मबन्धन सम्भव नहीं. आत्मा के कर्मबन्धन के लिये आन्तरिक अशुद्धि आवश्यक हैं. शुद्ध आत्मा के लिये अशुद्धि का प्रश्न ही नहीं उठता. अशुद्धि के विना कर्मबन्ध का भी प्रश्न नहीं उठता. यदि अशुद्धि के विना भी कर्म बन्धन होने लगे तो, मुक्ति को प्राप्त आत्माओं को भी कर्म बन्धन का प्रसंग उपस्थित हो जायगा. ऐसी अवस्था में आत्मा की मुक्ति के लिए प्रयत्न करना हो जायगा. अनादि काल से आत्मा का कर्मबन्ध और उसका संसार की विविध गतियों में जन्म लेना, इसका प्रतिपादन आचार्य श्री कुन्दकुन्द ने 'पंचास्तिकाय' नामक ग्रन्थ में बड़े ही सुन्दर ढंग से किया है :
जो संसार जीवो तो होदि परिणामो बु परिणामादो कम्मोद गदिमु गदी। गदिमधिगस्य देही देहादिवासि जायते तेहि दु विसयहणं तत्तो रागो वा दोसो वा । जायदि जीवस्सेवं भावो संसारचक्क वालम्मि, इदि परे भणिदो अहादिखियो सहिया ।
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