Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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सुरेश मुनि : अनेकान्त : ३१५
सार-तत्त्व यह है कि जन-दर्शन का मौलिक अनेकान्तवाद असत् पक्षों का समन्वय-हेल-मेल नहीं साधता. इससे तो जीवन मार्ग में अन्ध-स्थिति उत्पन्न हो जाती है. केवल सत्पक्षों और तथ्यांशों का समन्वय ही अनेकान्त है. क्या एक ही वस्तु में विरुद्धधर्म रह सकते हैं ?- 'एक ही पदार्थ नित्य भी है, अनित्य भी है, सत् भी है, असत् भी है, एक भी है, अनेक भी है, जैन-धर्म के मेरुमणि अनेकान्तवाद का यह वज्र आघोष है. नित्यत्व, अनित्यत्व सत्त्व, असत्त्व, एकत्व, अनेकत्व आदि परस्पर-विरोधी धर्म एक ही पदार्थ में कैसे रह सकते हैं ? इस आशंका का होना सहज है. पर जरा गहराई से विचार करने पर यह तथ्य उजागर हो जाएगा कि विरुद्ध धर्मों का एकत्र पाया जाना कोई नई अद्भुत अथवा आश्चर्यकारी बात नहीं है. यह तो हमारे दैनिक अनुभव में आने वाली बात है. कौन नहीं जानता कि एक ही व्यक्ति में अपने पिता की दृष्टि से पुत्रत्व, पुत्र की अपेक्षा से पितृत्व, भ्राता की अपेक्षा से भ्रातृत्व, छात्र की अपेक्षा से अध्यापकत्व और अध्यापक की दृष्टि से छात्रत्व आदि परस्पर विरुद्ध धर्म पाये जाते हैं. हां, विरोध की आशंका तब उचित कही जा सकती है, जब एक ही अपेक्षा से, एक पदार्थ में परस्पर विरुद्ध धर्मों का निरूपण किया जाए. पदार्थ में द्रव्य की दृष्टि से नित्यत्व, पर्याय की दृष्टि से अनित्यत्व, अपने स्वरूप की दृष्टि से सत्त्व
और पर-स्वरूप की दृष्टि से असत्त्व स्वीकार किया जाता है. अत: अनेकान्त के सिद्धान्त को विरोधमूलक बतलाना अपनी अज्ञानता का परिचय देना है. अनेकान्त विरोध का तो कट्टर शत्रु है
'सकलनयबिलसितानां विरोधमथनं नमाम्यनेकान्तम् !' -अमृतचन्द्र, पुरुषार्थसिद्धयुपाय -सकल नयों के विरोध को विनाश करने वाले अनेकान्त को मैं नमस्कार करता हूँ. किसी भी पदार्थ में नित्यत्व, अनित्यत्व, सत्त्व, असत्त्व, एकत्व, अनेकत्व आदि विरुद्ध धर्मों का रहना यदि असम्भव होता, तो उस पदार्थ में उनका प्रतिभास भी नहीं होना चाहिए था. परन्तु, प्रतिभास तो सहज अबाध रूप से होता है. उदाहरण के लिए घट को ही ले लीजिए. घट अपने स्वरूप की दृष्टि से 'सत्' है. यदि ऐसा न होता, तो घट है, यह ज्ञान नहीं होना चाहिए था. 'घट' घट है, पट नहीं, ऐसी ज्ञानानुभूति भी होती है. अतः घट में पट का अभाव भी ठहरता है. और इसी अपेक्षा से घट को पट की दृष्टि से 'असत्' कहा जाता है. यदि वस्तु को अपने स्वरूप की अपेक्षा से 'सत्' और पर-स्वरूप की अपेक्षा से 'असत्' स्वीकार न किया जाएगा, तो किसी भी विशेष पदार्थ में प्रवृत्ति नहीं हो सकती. जिस प्रकार अपने स्वरूप की दृष्टि से 'सत्त्व' उस पदार्थ का धर्म है, उसी प्रकार अन्य पदार्थ की दृष्टि से 'असत्त्व' भी उस पदार्थ का धर्म है. यदि ऐसा न होता तो उसमें इन दोनों बातों का व्यवहार भी नहीं हो सकता था. किन्तु, 'सत्त्व' की तरह 'असत्व' का भी व्यवहार उसमें निरन्तर होता है. अतः पदार्थ को 'असत्' भी माना जाता है. हां, पदार्थ को जिस अपेक्षा से 'सत्' माना जाता है, यदि उसी अपेक्षा से उसे 'असत् माना जाता, तब तो असम्भव दोष को अवकाश हो सकता था. पदार्थ को जिस दृष्टिकोण से सत् स्वीकार किया गया, उस दृष्टिकोण से वह 'सत्' ही है और जिस दृष्टिकोण से 'असत्' माना गया है, उस दृष्टिकोण से 'असत्' ही है. यही बात 'नित्यत्व' और 'अनित्यत्व' के सम्बन्ध में भी है. जिस अपेक्षा से हम पदार्थ को नित्य मानते हैं, उस अपेक्षा से वह नित्य ही है और जिस अपेक्षा से 'अनित्य' स्वीकार किया जाता है, उस अपेक्षा से वह 'अनित्य' ही है. यदि नित्यवाली दृष्टि से ही अनित्य माना जाता, तो विरोध हो सकता था.पदार्थ को द्रव्य की दृष्टि से नित्य और पर्याय की दृष्टि से अनित्य माना जाता है. ये दोनों धर्म पदार्थ में ही हैं. इसलिए पदार्थ नित्यानित्यात्मक है. अनेकान्तवाद की उपयोगिताः-अहिंसा का विचारात्मक पक्ष अनेकान्त है. राग-द्वेषजन्य संस्कारों के वशीभूत न होकर एक-दूसरे के दृष्टि-बिन्दु को ठीक-ठीक समझने का नाम ही तो 'अनेकान्न' है. इससे मनुष्य के अन्तर में तथ्य को हृदयंगम करने की वृत्ति का उदय होता है, जिससे सत्य को समझकर, उस तक पहुँचने में सुगमता होती है. जब तक मनुष्य अपने ही मन्तव्य अथवा विचार को सर्वथा ठीक समझता रहता है, अपनी ही बात को परम सत्य माना करता है, तब तक उसमें दूसरे के दृष्टिकोण को समझने की उदारता नहीं आ पाती और वह कूप-मण्डूक बना रहता है. फलतः, वह अपने को सच्चा और दूसरे को सर्वथा मिथ्यवादी समझ बैठता है.
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