Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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३७० : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : द्वितीय अध्याय पुद्गल के एक स्कन्ध (Molecule) में एक साथ स्निग्ध और रूक्ष में से कोई एक, मृदु और कठोर में से कोई एक, शीत और उष्ण में से कोई एक तथा लघु और गुरु में से कोई एक, ऐसे कोई चार स्पर्श अवश्य पाये जाते हैं लेकिन अणु (Ultimate atom) में स्निग्ध और रूक्ष में से कोई एक तथा शीत और उष्ण में से कोई एक, ऐसे कोई दो स्पर्श ही पाये जाते हैं क्योंकि वह पुद्गल का सूक्ष्मतम अंश है अतः उसके मृदु या कठोर और लघु या गुरु होने का प्रश्न ही नहीं उठता. रस (स्वाद):-रस पाँच होते हैं, मधुर, अम्ल (खट्टा), कटु, तिक्त (तीखा, चरपरा आदि) और कषायला (जैसे आंवले का स्वाद). इन रसों का सम्बन्ध भोजन से है. साहित्यशास्त्र में भी नौ रसों की मान्यता है. जैन दर्शन नौ रसों का अन्तर्भाव जीव द्रव्य और पुद्गल द्रव्य दोनों में करता है. इनमें से प्रत्येक के हम दो भेद कर सकते हैं, अनुभूतिरूप और शब्दरूप. अनुभूति चूंकि जीव (आत्मा) करता है अतः अनुभूतिरूप रस जीव में और शब्द, जिसकी चर्चा आगे की जावेगी, चूंकि पुद्गल की पर्याय है अतः शब्दरूप रस पुद्गल में अन्तर्भूत होता है. गन्ध :-गन्ध दो प्रकार की है, सुगन्ध और दुर्गन्ध. वर्ण (रंग):-वर्ण मुख्यतः पाँच प्रकार का होता है, कृष्ण (काला), रक्त (लाल), पीत, श्वेत और नील. दा या दो से अधिक रंगों के मिश्रण से बहुत-से नये रंग बन जाते हैं, उनका अन्तर्भाव यथासंभव इन्हीं पाँच रंगों में होता है. पंचवर्णों का सिद्धान्त जैन दर्शन के अनुसार वर्ण पाँच होते हैं जब कि सौर वर्णपटल (Solar-spectrum) में सात वर्ण होते हैं और प्राकृतिक (Natural) और अप्राकृतिक (Pigmetory) वर्ण तो अनेकों होते हैं. इसका समाधान यह है कि यहाँ वर्ण शब्द से जैनाचार्यों का तात्पर्य सौर वर्णपटल के वर्षों से अथवा अन्य बों से नहीं, प्रत्युत पुद्गल के उस मूलभूत (Fundamental Property) गुण से है जिसका प्रभाव हमारी आंख की पुतली पर लक्षित होता है और हमारे मस्तिष्क में कृष्ण, रक्त आदि आभास कराता है. आप्टिकल सोसायटी ऑफ अमेरिका (Optical society of America) ने वर्ण की यह परिभाषा दी है-वर्ण एक व्यापक शब्द है जो आंख के कृष्ण पटल और उससे सम्बद्ध शिराओं की क्रिया से उद्भूत आभास को सूचित करता है. रक्त, नील, पीत, श्वेत और कृष्ण इसके उदाहरण हैं.' पञ्चवर्णों का सिद्धान्त यही तो है कि यदि किसी वस्तु का ताप बढ़ाया जावे तो उसमें से सर्वप्रथम अदृव्य (Dark) ताप किरणें (Heat Rays) निस्सरित (Emitted) होती हैं और फिर ज्यों-ज्यों उसके ताप को बढ़ाया जावेगा त्यों-त्यों उसमें से क्रमशः रक्त, पीत, श्वेत और यहां तक कि नील किरणें निस्सरित होने लगती हैं. श्रीमेघनाद शाहा और बी० एन० श्रीवास्तव ने लिखा है कि कुछ तारे नील-श्वेत रश्मियां छोड़ते हैं जिससे स्पष्ट है कि उनका तापमान बहुत है. तात्पर्य यह कि ये पांच वर्ण ऐसे प्राकृतिक वर्ण हैं जो किसी भी पुद्गल से विभिन्न तापमानों (Temperatures) पर उद्भूत हो सकते हैं और इसलिए उन्हें पुद्गल के मूलगुण मानना पड़ेगा. वैसे जैन विचारकों ने वर्ण के अनन्त भेद माने हैं. हम सौर वर्णपटल (Solar Spectrum) के वर्षों (Colours)
8. Colour is a general term for all sensations, arising from the activity of retina and its
attached nervous machanisms. It may be examplified by the enumeration of characteristic instances such as red, yellow, blue, black and white............ Prof. G. R. Jain : Cosmology old & New.
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