Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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३८४ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : द्वितीय अध्याय जीव और पुद्गल का बन्ध-जीव और पुद्गल के पारम्परिक बन्ध की एक विशिष्ट परिभाषा है, जिसका विश्लेषण बहुत कुछ पहले किया जा चुका है. कषाय सहित होने अर्थात् रागद्वेषरूप भावनात्मक परिणमन करने के कारण जीव कार्मणवर्गणा के पुद्गल को ग्रहण करता है, और इसी ग्रहण का नाम है वन्ध.' कर्मबन्ध का सिद्धान्त--जीव जैसा कर्म करता है उसे वैसा ही फल भोगना पड़ता है, यही तथ्य कर्म-सिद्धान्त की भूमिका है. इस सिद्धान्त को जैन, सांख्य, योग, नैयायिक, वैशेषिक और मीमांसक आदि आत्मवादी दर्शन तो मानते ही हैं, अनात्मवादी बौद्ध दर्शन भी मानता है. इसी तरह ईश्वरवादी और अनीश्वरवादी भी इस सिद्धान्त में प्रायः एकमत हैं. कर्मबन्ध का स्वरूप-जैन दर्शन में कर्म केवल संस्कारमात्र ही नहीं हैं किन्तु एक वस्तुभुत पुद्गल पदार्थ हैं जो रागीद्वेषी जीव की क्रिया से आकृष्ट होकर जीव के साथ आ मिलता है. अथवा यों कहिए कि राग-द्वेष से युक्त जीव की प्रत्येक मानसिक, वाचनिक और शारीरिक क्रिया के साथ एक द्रव्य पुद्गलपरमाणु या कार्मणवर्गणा-जीव में आती है जो उसके राग-द्वेष रूप भावों का निमित पाकर जीव से बंध जाता है और आगे चलकर अच्छा या बुरा फल देने लगता हैं.२ कर्म के दो भेद हैं-द्रव्यकर्म और भावकर्म. जीव से संयुक्त कार्मणवर्गणा द्रव्यकर्म और द्रव्यकर्म के निमित्त से होने वाले जीव के राग-द्वेष रूपभाव, भावकर्म कहलाते हैं. कर्मबन्ध और वैदिक दर्शन-ईश्वर को जगत् का नियन्ता मानने वाले दर्शन जीव को कार्य करने में स्वतन्त्र, किन्तु उसका फल भोगने में परतन्त्र मानते हैं. उनके मत से कर्म का फल ईश्वर देता है किन्तु जैन-दर्शन के अनुसार कर्म अपना फल स्वयं देते हैं. उनके लिए किसी न्यायाधीश की आवश्यकता नहीं होती. शराब पीने से नशा होता है और दूध पीने से पुष्टि. शराब या दूध पीने के बाद उसका फल देने के लिए किसी दूसरे शक्तिशाली नियामक की आवश्यकता नहीं होती. इसी प्रकार जीव की प्रत्येक कायिक, वाचिक और मानसिक प्रवृत्ति के साथ जो कर्मपरमाणु जीव द्रव्य की ओर आकृष्ट होते हैं और राग-द्वेष का निमित्त पाकर उस जीव से बंध जाते हैं, उन कर्मपरमाणुओं (कार्मणवर्गणाओं) में भी शराब और दूध की तरह अच्छा और बुरा प्रभाव डालने की शक्ति रहती है. जो चैतन्य के सम्बन्ध से व्यक्त होकर जीव पर अपना प्रभाव डालती है और उसके प्रभाव से मुग्ध हुआ जीव ऐसे काम करता है जो सुखदायक या दुःखदायक होते हैं. कर्मबन्ध का वर्गीकरण--बन्ध या संयोग को प्राप्त होने वाली कार्मण वर्गणाओं में अनेक प्रकार का स्वभाव पड़ना प्रकृतिबन्ध है. यह आठ प्रकार का होता है.४ (१) ज्ञानावरण कर्म (२) दर्शनावरण कर्म (३) वेदनीय कर्म (४) मोहनीय कर्म (५) आयु कर्म (६) नाम कर्म (७) गोत्र कर्म (८) अन्तराय कर्म.
१. सकषायत्वाज्जीवः कर्मणो योग्यान पुद्गलानादत्ते स बंध: -वही, अ०८, सू० २. २. परिणमदि जदा अप्पा सुहम्मि असुहम्मि रागदोसजुदो ।
तं पविसदि कम्मरयं णाणावरणादिभावेहिं ।-आचार्य कुन्दकुन्दः प्रवचनसार, गाथा ६५. ३. (१) कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन । -श्रीमदभगवद्गीता; अ०४, श्लो० २७ । (२) अज्ञो जन्तुरनीशोऽयमात्मनः सुखदुःखयोः ।
ईश्वरप्रेरितो गच्छेत् स्वर्ग वा श्वभ्रमेव वा । —महर्षि वेदव्यास : महाभारत,वनपर्व, अ० ३०, श्लो० २८. ४. आद्यो ज्ञानदर्शनावरणवेदनीयमोहनी यायुर्नामगोत्रान्तरायाः।--आचार्य उमास्वामी : तत्त्वार्थसूत्र, अ०८, सू० ४.
Jain L
atin
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